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ग्रन्थ- परीक्षा |
किया है और मनुका लिखा है । इसीलिए या तो यह पद्य सीधा 'मनुस्मृति' से लिया गया है या अन्य पद्योंकी समान योगशास्त्र से ही उठाकर रक्खा गया है । दूसरा पद्य यशस्तिलक के छटे आश्वासमें और धर्मसंग्रहश्रावकाचारके चौथे अधिकारमें ' उक्तं च ' रूपसे लिखा है । यह किसी दूसरे ग्रंथका पद्य है-इसकी टकसाल भी अलग है - इसलिए ग्रंथकर्त्ताने या तो इसे सीधा उस दूसरे ग्रंथसे ही उठाकर रक्खा है और या उक्त दोनों ग्रंथोंमेंसे किसी ग्रंथसे लिया है। तीसरा पद्य ' वसुनन्दिश्रावकाचार ' की निम्नलिखित प्राकृत गाथाकी संस्कृत छाया है:
" संबेओ णिओ जिंदा गरुहा य उवसमो भत्ती । वच्छल्लं अणुकंपा अठगुणा हुति सम्मत्ते ॥ ४९ ॥
इस गाथाका उल्लेख ‘ पंचाध्यायी' में भी, पृष्ठ १३३ पर, उक्त च ' रूपसे पाया जाता है । इसलिए यह तीसरा पद्य या तो वसुनन्दिश्रावकाचारकी टीकासे लिया गया है, या इस गाथापरसे उल्था किया गया है ।
(२) अब, उदाहरण के तौरपर, कुछ परिवर्तित पद्य, उन पद्योंके साथ जिनको परिवर्तन करके वे बनाये गये मालूम होते हैं, नीचे प्रगट किये जाते हैं । इन्हें देखकर परिवर्त्तनादिकका अच्छा अनुभव हो सकता है । इन पयोंका परस्पर ं शब्दसौष्ठव और अर्थगौरवादि सभी विषय विद्वानोंके ध्यान देने योग्य हैं:
१ - स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते ।
निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ १३ ॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचारः ।
स्वभावादशुचौ देहे रत्नत्रयपवित्रिते । 'निर्घुणा च गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ ४१ ॥
- उमास्वामिश्राव० ।
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