Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 65
________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। था और वह भी यदा तदा। यही कारण है कि वे १३ पोंके अन्तिम काव्योंमें ' सोमसेन ' के स्थानमें 'जैनसेन' ही बदलकर रख सके हैं। 'जिनसेन'का बदल उनसे कहीं भी न हो सका। यहाँ पर जिनसेनत्रिवर्णाचारके कत्ती योग्यताका कुछ और भी दिग्दर्शन कराया जाता है, जिससे पाठकों पर उनकी सारी कलई खुल जायगी: (क) जिनसेन त्रिवर्णाचारके प्रथम पर्वमें ४५१ पद्य हैं। जिनमेंसे आदिके पाँच पद्योंको छोडकर शेष कुल पद्य (४४६ श्लोक) भगवज्जिनसेनप्रणीत आदिपुराणसे लेकर रक्खे गये हैं। ये ४४६ श्लोक किसी एक पर्वसे सिलसिलेवार नहीं लिये गये हैं, किन्तु अनेक पासे कुछ कुछ श्लोक लिये गये हैं। यदि जिनसेनत्रिवर्णाचारके कर्तामें कुछ योग्यता होती, तो वे इन श्लोकोंको अपने ग्रंथमें इस ढंगसे रखते कि जिससे मजमूनका सिलसिला ( क्रम ) और संबंध ठीक ठीक बैठ जाता । परन्तु उनसे ऐसा नहीं हो सका । इससे साफ जाहिर है कि वे उठाकर रक्खे हुए इन श्लोकोंके अर्थको भी अच्छी तरह न समझते थे । उदाहरणके तौर पर कुछ श्लोक नीचे उद्धृन किये जाते हैं: ततो युगान्ते भगवान्वीरः सिध्दार्थनन्दनः । विपुलाद्रिमलं कुर्वन्नकदास्ताखिलाह ॥६॥ अथोपसृत्य तत्रनं पश्चिमं तीर्थनायकम् । पप्रच्छामु पुराणार्थ श्रेणिको विनयानतः ॥ ७॥ तं प्रत्यनुग्रहं भर्तुरवबुध्य गणाधिपः । पुराणसंग्रहं कृत्लमन्यवोचत्स गौतमः ॥८॥ अत्रान्ततरे पुराणार्थकोविदं वदतां वरम् । पप्रच्छुर्मुनयो नम्रा गौतमं गणनायकम् ॥९॥ भगवन्भारते वर्षे भोगभूमिस्थितिच्युतौ । कर्मभूमिव्यवस्थायां प्रस्तावां यथायथम् ॥ १०॥..

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