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ग्रन्थ-परीक्षा।
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पहले अध्यायका चौथा प्रकरण; जिसका नाम : वर्ण-जाति-विवेकप्रकरण' हैं; मिताक्षरा टीकासहित ज्योंका त्यों उठाकर नहीं किन्तु. चुराकर रक्खा गया है * । इस प्रकरणमें मूल श्लोक सात हैं, शेष बहुतसा गद्यभाग उनकी पृथक् पृथक् टीकाओंका है । नमूनके तौरपरं इस प्रकरणका पहला और अन्तिम श्लोक तथा पहले.श्लोककी टीकाका, कुछ अंश-नीचे प्रगट किया जाता है:. “सवैभ्यः सवर्णालं जायते हि संजातयः ।
अनिन्येषु विवाहेषु पुत्राः सैतानवधनीः । जात्युत्को युग ज्ञेयः पंचमे सप्तमेऽपि वा ।
व्यत्यये कर्मणां साम्य पूर्ववच्चाधरौत्तरम् ॥" * सवर्णेभ्यो ब्राह्मणादिभ्यः सर्वासु ब्राह्मण्यादिषु सजातयः मातृपितृ-समानं-जातीयाः पुत्रा भवति, विन्नास्वेष विधिः स्मृतः' इति सर्वशेषत्वेनोपसंहारात् । विन्नासु संवर्णास्विति संबध्यते विनाशब्दस्य...." .. जिनसेनं त्रिवर्णीचारमें इन श्लोकोका कोई नम्बर नहीं दिया है और
न टीकाको ‘टीका ' या अर्थ ' इत्यादि ही लिखा है। बल्कि एक सरा नकल कर डाली है । याज्ञवल्क्यस्मृतिमें इन दोनों लोकोंके नम्बर क्रमशः ९० और ९६ हैं । त्रिवर्णाचारके कर्ताने इस प्रकरणको उठाकर रखने में बड़ी ही चालाकीसे काम लिया है। याज्ञवल्यस्मृति और उसकी मिताक्षरा' टीकाका उसने कहीं भी नामोल्लेख नहीं किया,. प्रत्युत इस बातकी बराबर .चेष्टा की है कि ये सेल वचन उसके औरः प्राचीन जैनाचार्योंके ही समझे जायँ । यही कारण है कि दूसरे श्लोकके . + सिर्फ पहेलै श्लोककी लम्बी चौड़ी यकीमें चार पाच पंक्तियां ऐसी हैं जो किसी दूसरे प्रथसे उठाकर जोड़ी गई है और जिनमें धृतराष्ट्र, पांडु और बिंदु: रकै क्षेत्रज दृष्टिज) पुत्र होनेको निषेध किया गया है।
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