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ग्रन्थ-परीक्षा। . .
नहीं फिरते उसी तरह पर कोई भी पितर किसी भी गतिमें जाकर तर्प- - •णके जलकी इच्छासे विह्वल हुआ उसके पीछे मारा मारा नहीं फिरता । प्रत्येक गतिमें जीवोंका आहारविहार, उनकी उस गति, स्थिति और देशकालके अनुसार होता है। इस तरह पर त्रिवर्णाचारका यह सब कथन जैनधर्मके विरुद्ध है और कदापि जैनियोंद्वारा माने जानेके योग्य नहीं हो सकता । अस्तु । तर्पणका यह सम्पूर्ण विषय बहुत लम्बा चौड़ा है । "त्रिवर्णाचारका कर्ता इस धार्मविरुद्ध तर्पणको करते करते बहुत दूर निकल गया है । उसने तीर्थंकरों, केवलियों, गणधरों, ऋषियों, भवन-वासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों, काली आदि देवियों, १४ कुलकरों, कुलकरोंकी स्त्रियों, थिकरोके मातापिताओं, चार पीटीतक स्वमातापितादिकों, तीर्थकरोंको आहार देनेवालों, तीर्थंकरोंके वंशों, १२ चक्रवर्तियों, ९ नारायणों, ९ प्रतिनारायणों, ९ बलिभद्रों, ९ नारदों, महादेवादि ११ रुद्रों, इत्यादिको, अलग अलग नाम लेकर, पानी दिया है। इतना ही नहीं, बल्कि नदियों, समुद्रों, जंगलों, पहाडों, नगरों, द्वीपों, वेदों, वेदांगों, कालों, महीनों, ऋतुओं और वृक्षोंको भी, उनके अलग अलग नामोंका उच्चारण करके, पानी दिया है। हिन्दुओंके यहाँ भी ऐसा ही होता है। अर्थात् वे नारायण और रुद्रादि देवोंके साथ नदियों समुद्रों आदिका भी तर्पण करते हैं।
१. ऋषियोंके तर्पणमें हिन्दुओंकी तरह 'पुराणाचार्य' का भी तपण किया है । और हिन्दुओंके 'इतराचार्य' के स्थानमें 'नवीनाचार्य' का तर्पण किया है।
जैसा कि कात्यायन परिशिष्ट सूत्रके निम्न लिखित एक अंशसे प्रगट है:__"ततस्तर्पयेद्ब्रह्माणं पूर्व विष्णुं रुद्र प्रजापति देवांश्छेदांसि वेदान्तृषीन्पुराणा. चार्यान्गन्धर्वानितराचार्यान्संवत्सरं सावयव देवीरप्सरसो देवानुगानागासागरान्पर्वतान् सरितो मनुष्यान्यक्षान् रक्षांसि पिशाचान्सुपर्णान् भूतानि पशून्वनस्पतीनौषधीभूतप्रामश्चतुर्विधस्तृप्यतामित्योंकारपूर्वम् ।"
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