Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 115
________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार । उनके आगे भाजनके पात्र रखना; ब्राह्मणोंकी आज्ञासे 'अग्नौ करण' करना; जौं ( यव ) बखेरना; प्रजापतिको अर्घ देना; अमुक देव या पितरको यह भोजन मिले, ऐसे आशयका मंत्र बोलकर नियुक्त ब्राह्मणोंको तृप्तिपर्यंत भोजन कराना; तृप्तिका प्रश्नोत्तर किया जाना; ब्राह्मणोंसे शेषानको इष्टोंके साथ भोजन करनेकी इजाजत लेना; भूमिको लीपकर पिंढ देना; आचमन और प्राणायामका किया जाना; जप करना; कभी जनेऊको दाहने कंधे पर और कभी वाएँ कंधे पर डालनी, जिसको 'अपसव्य' और 'सव्य ' होना कहते हैं; आशीर्वादको दिया जाना; ब्राह्मणोंसे 'स्वधा' शब्द कहलाना, और उनको दक्षिणा देकर विदा करना; इत्यादि- . ___ऊपरके इस क्रियाकांडसे, पाठकोंको यह तो भले प्रकार मालूम हो जायगा कि इस विवर्णाचारमें हिन्दूधर्मकी कहाँ तक नकल की गई है। परन्तु इतना और समझ लेना चाहिए कि इस ग्रंथमें हिन्दूधर्मके आशंयंको लेकर केवल क्रियाओं ही की नकल नहीं की गई, बल्कि उन शब्दोकी भी अधिकतर नकल की गई है; जिन शब्दोमें ये क्रियायें हिन्दुधर्मक अन्योंमें पाई जाती हैं। और तो क्या, बहुतसे वैदिक मंत्र भी ज्योंके त्यों हिन्दुग्रंथोंसे उठाकर इसमें रख्खे गये हैं । नीचे जिनसेनत्रिवर्णाचारसे, उदाहरणके तौर पर, कुछ वाक्य और मंत्र उद्धृत किये जाते हैं; जिनसे आद्धका आशय, उद्देश, देवपितरोंकी तृप्ति और नकल वगैरहका हाल और भी अच्छी तरहसे पाठकों पर विदित हो जायगाः__“नित्यश्राद्धेऽर्थगंधाधैर्द्विजानचेत्स्वशक्तितः । संवानिपतृगणान्सम्यक् तथैवोद्दिश्य योजयेत् ॥१॥". इस लोकमें नित्यं श्राद्धके समय ब्राह्मणोंका पूजन करना और सर्व पितरोंको उद्देश्य करके श्राद्ध करना लिखा है । इसी प्रकार दूसरे स्थानों १११

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