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अन्य-परीक्षा।
"ऋतुस्नाता तु या नारी भर्तारं नोपसर्पति । । सा मृता नरकं याति विधवा च पुनः पुनः॥४-१४॥"
-पराशरस्मृतिः। इसी प्रकार हिन्दुधर्मके और बहुतसे फुटकर श्लोक इस त्रिवर्णाचारमें पाये जाते हैं, जो या तो ज्योंके त्यों और या कुछ परिवर्तनके साथ रक्खे गये हैं। __ इस तरह पर धर्मविरुद्ध कथनोंके ये कुछ थोड़ेसे नमूने हैं। और इनके साथ ही इस ग्रंथकी परीक्षा भी समाप्त की जाती है।
ऊपरके इस समस्त कथनसे, पाठकगण, भले प्रकार विचार सकते हैं कि यह ग्रंथ (जिनसेन त्रिवर्णाचार) कितना जाली, बनावटी तथा धर्मविरुद्ध कथनोंसे परिपूर्ण है। और ऐसी हालतमें यह कोई जैनग्रंथ हो सकता है या कि नहीं । वास्तवमें यह ग्रंथ विषमिश्रित भोजनके समान त्याज्य है, और कदापि विद्वानोंमें आदरणीय नहीं हो सकता। इसे गढ़कर ग्रंथकर्ताने, निःसन्देह, जैनसमाजके साथ बढ़ा ही शत्रुताका व्यवहार किया है। यह सच पूछिये तो, सब ऐसे ही ग्रंथोंका प्रताप है जो आजकल जैनसमाज अपने आदर्शसे गिरकर अनेक प्रकारके मिथ्यात्वादि कुसंस्कारोंमें फँसा हुआ है। यदि जैनसमाजको अपने हितकी इच्छा है तो उसे सावधान होकर, शीघ्र ही ऐसे जाली और धर्मविरुद्ध ग्रंथोंका वहिष्कार करना चाहिये । ता०.१५-८-१९१४.
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