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जिनसेन-त्रिवर्णाचार ।
ये सब वाक्य कात्यायन स्मृति ( १३ ३ खंड) के हैं। वहींसे उठाकर त्रिवर्णाचारमें रक्खे गये हैं। इनमें लिखा है कि यदि कोई दूसरा ब्राह्मण भोजन करनेवाला न मिले अथवा भोजनकी सामग्री अधिक न हो, तो पितृयज्ञकी सिद्धिके लिए कमसे कम एक ही ब्राह्मणको भोजन करा देना चाहिए। और यदि इतना भी न हो सके, तो कुछ थोडासा अन्न पितरादिकोंके वास्ते ब्राह्मणकोज़रूर दे देना चाहिए। पितरोंके लिए जो दिया जाय उसके साथमें 'पितृभ्यः इदं स्वधा,' यह मंत्र बोलना चाहिए।'
“ अन्वष्टकासु वृध्दौ च सिध्दक्षेत्रे क्षयेऽहनि ।
मातुः श्राध्द पृथक्कर्यादन्यत्र पतिना सह ॥" अर्थात्-अन्वष्टका, वृद्धि, सिद्धक्षत्र, क्षयाह, इन श्राद्धोंमें माताका श्राद्ध अलग करना चाहिए । दूसरे अवससरों पर पतिके संग करे । यह श्लोक भी हिन्दूधर्मका है और 'मिताक्षरा' में इसी प्रकारसे दिया है। सिर्फ दूसरे चरणमें कुछ थोडासा भेद है। मिताक्षरामें 'क्षयेऽहनि' से पूर्व 'गयायांच' ऐसा पद दिया है । और इसके द्वारा गयाजीमें जो श्राद्ध किया जाय उसको सूचित किया है । त्रिवर्णाचारमें इसको बदलकर इसकी जगह 'सिद्धक्षेत्रे ' बनाया गया है।
" आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः।
ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ॥" हिन्दुओंके यहाँ, * विश्वेदेवा' नामके कुछ देवता हैं, जिनकी * यथा:-"ऋतुर्दक्षो वसुः सत्यः कामः कालस्तथाध्वनिः (धृतिः)।
रोचकश्वावाश्चैव तथा चान्ये पुरूरवाः ॥ विश्वेदेवा भवन्त्येते दश सर्वत्र पूजिताः।"
--वह्निपुराण । ११३