Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 118
________________ अन्य-परीक्षा .. ख्या.१० है ।जपरका यह श्लोक उन्हींके आवाहनका मंत्र है। मिताक्षरामें इसे विश्वेदेवाके आवाहनना स्मात मंत्र लिखा है। हिन्दु- . आ गारदादि ग्रंयामें भी यह मंत्र पाया जाता है। जिनसेनत्रिवर्णा- . चारमें भी यह मंत्र.विश्वदेवाके आवाहन में प्रयुक्त किया गया है। परन्तु . जरासे परिवर्तनके साथ । अर्थात् त्रिवर्णाचारमें 'महाबलाः' के स्थानमें 'चतुर्दश? शब्द दिया है । बानी मंत्र बदस्तूर रस्ता है । त्रिवर्णाचारके ने जैनियोंके १४ कुलकरांने 'दिवेदेवा' वर्णन. किया है । इसीलिए उसका यह परिवर्तन मालूम होता है। परन्तु जैनियाके आर्ष ग्रंथामें कहीं भी ऐता वर्णन नहीं पाया जाता ! "आर्चरौद्रमृता ये न ज्ञातिनां कुलसूपणाः।. . उच्छिष्टभागं गृह्णन्तु दर्भेषु विकिराशनम् ॥ . . . अग्निदग्धाश्च ये जीवा येऽप्यदग्धाः कुले मम। । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु परां गतिन् ॥" अर्थात्-जो कोई आत या रौद्र परिणामों के साथ मरे हों, जातियोंके भूषण न हों अर्थात् क्षुद्र मनुष्य हों वे सब दर्भक ऊपर डाले हुए भोजनके इस उच्छिष्ट भागो ग्रहण करो। और जो मेरे कुलमें अमिते दग्ध हुए हों अथवा जिनो अग्मिना दाह प्राप्त न हुआ हो वे सब पृथ्वीपर डाले हुए इस भोजनसे वृत्त होओ और तत होकर उसम गंतिको प्राप्त होओ । ये दोनों श्लोक पिंड देते समयके मंत्र हैं। दूसरा श्लोक हिन्दुओंके मिताक्षरा और गारुडादि ग्रंथोंमें भी पाया जाता है। और पहले श्लोकका आशय मनुस्तृतिके तीसरे अन्यायके लोक . नं० २४५-२४६ से मिलता जुलता है । त्रिवर्णाचारके इन श्लोकोंते साफ़ ज़ाहिर है कि पितरगण पिंड ग्रहण करते हैं और उसे पाकर वृप्त होते तथा उत्तम गतिको प्राप्त करते हैं। ११४

Loading...

Page Navigation
1 ... 116 117 118 119 120 121 122 123