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ग्रन्थ-परीक्षा ।
पर भी 'ब्राह्मणं गंधपुष्पायैः समर्चयेत,' अस्मत्पितुनिमित्तं नित्यश्रादमहं करिष्ये, ' इत्यादि वचन दिये हैं। .. ... ... : " नावाहनं स्वधाकारः पिंडाग्नीकरणादिकम् । . . . .
ब्रह्मचर्चादिनियमो विश्वेदेवास्तथैव च ॥ २॥" ... इस श्लोकमें उन काँका उल्लेख किया है, जो नित्य श्राद्धमें, वर्जित हैं । अर्थात् यह लिखा है कि नित्य श्राद्धमें आवाहन, स्वधाकार, पिंडदान, अग्नौकरणादिक, ब्रह्मचर्यादिका नियम और विश्वेदेवोंका श्राद्ध नहीं किया जाता । यह श्लोक हिन्दूधर्मसे लिया गया है । हिन्दुओंके 'आह्निक सूत्रावलि ' ग्रंथमें इसे व्यासजीका वचन लिखा है।
“देद्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्यनोदकेन वा । . .. . पयोमूलफलैर्वापि पितृभ्यः प्रीतिमावहन् ॥ ५॥" अर्थात्-पितरोंकी प्रीति प्राप्त करनेके अभिलाषीको चाहिए कि वह अन्नादिक या जलसे अथवा दूध और मूल फलोंसे नित्य श्राद्ध करे। इससे प्रगट है कि पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध किया जाता है और पित-. रगण उससे खुश होते हैं । यह श्लोक मनुस्मृतिके तीसरे अध्यायसे उठाकर रक्खा गया है और इसका नम्बर वहाँ ८२ है। " अप्येकमाशयेद्वितं पितृयज्ञार्थसिद्धये। अदैवं नास्ति चेदन्यो भोक्ता भोज्यमथापि.वा ॥६॥". . अप्युद्धृत्य यथाशक्ति किंचिदन्नं यथाविधि। ...... पितृभ्योऽथ मनुष्येभ्यो दयादहरहार्द्वजे ॥७॥ ..
पितृभ्य इदमित्युक्त्वा स्वधावाच्यंच कारयेवा८॥(पूर्वाध)" . १ मैं अपने पिताके निमित्त नित्य श्राद्ध करता हूँ। २ मनुस्मृतिमें दद्याद' के स्थानमें 'कुर्यात् ' लिखा है। परन्तु मिताक्षरादि ग्रंथोंमें 'दद्यात् ' के साथ ही इसका उल्लेख किया है। कात्यायनस्मृतिमें "स्वधाकारसुंदीरयेत् । ऐसा लिखा है। ... .. ... .
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