Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 110
________________ ग्रन्थ- परीक्षा | " “ केचिदस्मत्कुले जाता अपुत्रा व्यंतराः सुराः । ते गृहन्तु मया दत्तं वस्त्रनिप्पीडनोदकम् ॥ १३ ॥ " अर्थात् - हमारे कुलमेंसे जो कोई पुत्रहीन मनुष्य मरकर व्यंतर. जातिके देव हुए हों, उन्हें मैं धोती आदि वस्त्रसे निचोड़ा हुआ पानी देता हूँ, वे उसे ग्रहण करें। यह तर्पणके बाद धोती निचोड़नेका मंत्र है * । इसके बाद ' शरीरके अंगोंपरसे हाथ या वस्त्रसे पानी नहीं पोंछना चाहिए, नहीं तो पुनः स्नान करनेसे शुद्धि होगी ' ऐसा विधान करके उसके कारणोंको बतलाते हुए लिखा है कि-- ' " तिस्रः कोट्योर्धकोटी च यावद्रोमाणि मानुषे । वसन्त तावतीर्थानि तस्मान्न परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥ पिवन्ति शिरसो देवाः पिवन्ति पितरो मुखात् । मध्याच्च यक्षगंधर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवः ॥ १८ ॥ अर्थात् -- मनुष्यके शरीर में जो साढ़े तीन करोड़ रोम हैं, उतने ही तीर्थ हैं। दूसरे, शरीर पर जो स्नान जल रहता है उसे मस्तक परस देव, मुखपरसे पितर, शरीरके मध्यभाग परसे यक्ष गंधर्व और नीचेके भाग परसे अन्य सब जन्तु पीते हैं । इस लिए शरीरके अंगोंको पोंछना नहीं चाहिये । जैनसिद्धान्तसे जिन पाठकोंका कुछ भी परिचय है, वे ऊपरके इस कथनसे भलेप्रकार समझ सकते हैं कि, त्रिवर्णाचारका यह तर्पणविषयक कथन कितना जैनधर्मके विरुद्ध है । जैनसिद्धान्त के अनुसार न तो * हिन्दुओंके यहां इससे मिलता जुलता मंत्र इस प्रकार है:" ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रजा मृताः । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिप्पीडनोदकम् ॥ " - स्मृतिरत्नाकरः । १०६

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