Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 99
________________ जिनसेन - त्रिवर्णाचार । 4 भद्रवाहुसंहितासार ' ऐसा जैनग्रंथका नाम दिया है । इसी प्रकार मुहूर्ताचिन्तामणिके श्लोक नं० ३९ की टीकामें 'आपस्तम्ब गृह्यसूत्र 'के हवाले से कुछ गद्य दिया हुआ है । जिनसेन त्रिवर्णाचारके १३ वें पर्व में वह गद्य ज्योंका त्यों नकुल किया गया है परन्तु 'आपस्तम्बगृह्यसूत्र' के स्थानमें ' उपासकाध्ययनसार ' ऐसा नाम बदलकर रक्खा है । ४- मूहूर्तचिन्तामणि ( संस्कार प्रकरण ) के श्लोक नं० ४० की टीकामें नारदके हवालेसे यह वाक्य दिया है: "" नारदेन यत्सतभीत्रयोदश्याः प्राशस्त्यमुक्तं तद्वसंताभिप्रायेणेति ज्ञेयम् " | जिनसेन त्रिवर्णाचारके १३ वें पर्वमें यह वाक्य ज्योंका त्यों नकुल किया गया है । परन्तु 'नारदेन' के स्थानमें ' भद्रबाहुना' बनाकर इसको भी भद्रबाहुस्वामीका प्रगट किया गया है । इस वाक्यके पश्चात्, जिनसेन त्रिवर्णाचारमें, टीकाके अनुसार एक 'उक्तं च' इलोक देकर ( जो नारदका वचन है) और ' भद्रबाहुसंहितायां गलग्रहास्तिथयः ऐसा लिखकर निम्न लिखित श्लोक और कुछ गेय दिया है: ? ८८ कृष्णपक्षे चतुर्थात सप्तम्यादि दिनत्रयं । चतुर्दशी चतुष्कं च अष्टावेते गलग्रहाः । " यह श्लोक और इससे आगेका गद्य दोनों वसिष्ठ ऋषिके वचन हैं, ऐसा टीकामें लिखा है । परन्तु त्रिवर्णाचारके कर्ताने इन्हें वसिष्ठके स्थानमें 'भद्रबाहुसंहिता' का बतलाया है और गद्यके अन्तमें टीकाके अनुसार जो 'सदिति वसिष्ठोक्तः ' ऐसा नक़ल करके रक्खा है उसका उसे कुछ भी ख़याल नहीं रहा । ५- मुहूर्तचिन्तामणि ( संस्कार प्र० ) के श्लोक नं० ४४ की दोनों टीकाओं में निम्न लिखित श्लोक क्रमशः नारद और वसिष्ठके हवालेसे दिये हैं: ९५

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