Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 100
________________ ग्रन्थ-परीक्षा। .. "शाखाधिपतिवारश्च शाखाधिपवलं शिशोः । शाखाधिपतिलग्नं च त्रितयं दुर्लभं व्रते॥ शाखेशगुरुशुक्राणां मौढ्ये बाल्ये च वार्धके । नैवोपनयनं कार्य वर्णेशे दुर्वले सति ॥" जिनसेन त्रिवर्णाचारके १३३ पर्वमें इन दोनों श्लोकोंको नारदादिके स्थानमें 'गौतमः लिखकर गौतमस्वामीका बना दिया है। त्रिवर्णाचारके कर्ताको 'गौतम' यह नाम कुछ ऐसा प्रिय था कि उसने जगह जगह पर इसका बहुत ही प्रयोग किया है। मुहूर्तचिन्तामणिके श्लोक नं०४२ की टीकामें एक स्थान पर यह वाक्य था कि 'कश्यपस्तूवस्थं लग्नस्थं चंद्रं सदैव न्यषेधीत् ' इस वाक्यमें भी कश्यप ऋषिके स्थानमें 'गौतम बदलकर त्रिवर्णाचारके कर्त्ताने 'गौतमस्तूवस्थं चंद्र सदैव न्यषेधीतं, ऐसा वना दिया है । इसी प्रकार मुहूर्तचिन्तामणिके श्लोक नं० ४६,५१ और ५३ की टीकाओंमें कुछ श्लोक नारदके हवालेसे थे उन्हें भी नकल करते समय जिनसेनत्रिवर्णाचारमें गौतमके बना दिया है। ६-मुहूर्तचिन्तामणिमें श्लोक नं० ४४ की टीकाको प्रारंभ करते हुए एक स्थान पर लिखा है कि:-- “यथा गुरुः ऋग्वेदिनामीशोऽतो गुरुवारे गुरुलग्ने धन मीनाख्ये गुरुवले च सत्युपनयनं शुभम् ।" जिनसेनत्रिवर्णाचारके १वें पर्वमें भी यह वाक्य इसी प्रकारसे उपर्युक्त श्लोककी टीकाको प्रारंभ करते हुए दिया है । परन्तु 'ऋग्वेदिनामीशः' के स्थानमें 'प्रथमानुयोगिनामीशः' ऐसा बदल कर रक्खा गया है। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर भी जहाँ टीकामें हिन्दुवेदोंके नाम आये हैं जिनसेनत्रिवर्णाचारमें उनके स्थानमें जैनमतके अनुयोगोंके नाम बना दिये हैं।

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