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जिनसेन - त्रिवर्णाचार ।
(७) 'केशांत समावर्तन' मुहूर्तका वर्णन करते हुए, मुहूर्तचिन्तामणिके श्लोक नं० ६० की ' प्रमिताक्षरा ' टीकामें आश्वलायन ऋषिके हवालेसे एक श्लोक दिया है और उसके आगे फिर कुछ गय लिखा है । वह श्लोक और गयका कुछ अंश इस प्रकार है:
" प्रथमं स्यान्महानाम्नी द्वितीयं च महाव्रतम् । तृतीयं स्यादुपनिषद्गोदानाख्यं ततः परम् ॥
अत्र जाताधिकाराद्गोदानं जन्माद्यके तु पोडशे इति वृत्तिकारवचनात् त्रयोदशे महानाम्न्यादि भवंति । त्रयोदशे महानाम्नी चतुदेशे महाव्रतं पंचदशे उपनिपव्रतं पोडशे गोदानमिति । एवं क्षत्रिय... ॥ "
जिनसेनत्रिवर्णाचारके १३ वे पर्वमें यह सब गद्य पद्य ज्योंका त्यों नकल किया गया है । परन्तु उपर्युक्त श्लोकसे पहले 'आश्वलायन ' के स्थानमें 'श्रीभद्रबाहु ' बना दिया है। इस गद्य पद्यमें जिन महानाम्नी और उपनिषद् आदि व्रतोंके अनुष्ठानका वर्णन किया गया है. वे सब हिन्दू मतके व्रत हैं; जैनमतके नहीं । इस लिए यह कथन जैनाचार्य श्रीभद्रबाहु स्वामीका नहीं हो सकता ।
जिनसेन त्रिवर्णाचारके बनानेवालेने, इस प्रकार, बहुतसे प्रकरणोंको हिन्दूधर्मके ग्रंथोंसे उठाकर रखने और उन्हें जैनमतके प्रगट करनेमें, बड़ी ही धूर्तता और धृष्टतासे काम लिया है । उसका यह कृत्य बड़ी ही घृणाकी दृष्टिसे देखे जाने योग्य है ।
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अब यहाँपर, संक्षेपमें, धर्मविरुद्ध कथनोंके कुछ विशेष नमूने दिखलाये जाते हैं । जिससे जैनियोंकी और भी कुछ थोड़ी बहुत आँखें खुलें और उन्हें ऐसे जाली ग्रथोंको अपने भंडारोंसे अलग करनेकी सद्बुद्धि प्राप्त हो:
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