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जिनसेन-त्रिवर्णाचार।
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वहिपुराणके इन श्लोकोंमेंसे पहले श्लोकका उत्तरार्ध और जिनसेन-. त्रिवर्णाचारके, ऊपर उद्धृत किये हुए, दूसरे श्लोकका उत्तरार्ध, ये दोनों एक ही हैं। इससे और भी स्पष्ट है कि यह कथन हिंदूधर्मसे लिया गया हे । जैनियोंके आर्ष ग्रंथोंमें कहीं भी ऐसा कथन नहीं है।
२-गोमूत्रसे स्नान । जिनसेनत्रिवर्णाचारमें, ऊपर उद्धृत किये हुए तीसरे श्लोककै अनन्तर, पंचगव्यसे अर्थात् गोमूत्रादिसे स्नान करना लिखा है और फिर सूर्यके सामने खड़ा होकर शरीरशुद्धि स्नानका विधान किया है । इसके पश्चात् सिरपर पानीके छींटे देनेके कुछ मंत्र लिखकर संध्याबन्दन करना और उसके बाद सूर्यकी उपासना करनी चाहिए, ऐसा लिखा है। यथाः
" निमज्ज्योन्मज्याचम्य अमृते अमृतोद्भवे पंचगव्यस्नानं सूर्याभिमुखं स्थित्वा शरीर शुद्धिस्नानं कुर्यात् ।......संध्यावन्दनानन्तरं सूर्योपस्थापनं कर्तव्यम् ।"
और भी कई स्थानोंपर पंचगव्यसे स्नान करनेका विधान किया है। एक स्थानपर, इसी पर्वमें, नित्यस्नीनके लिए गंगादि नदियोंके किनारे पर पंचगव्यादिके ग्रहण करनेका उपदेश दिया है । येथाः--
"अथातो नित्यस्नानार्थं गंगादिमहानदीनदार्णवतीरे पंचगव्यादिकुशतिलाक्षततीर्थमृत्तिका गृहीत्वा......"
यह सब कथन भी हिन्दूधर्मका है। हिन्दुओंके यहाँ ही गोमय और गोमूत्रका बहुत बड़ा माहात्म्य है । वे इन्हें परम पवित्र मानते हैं और इनसे स्नान करना तो क्या, इंनका भक्षणं तक करते हैं। उनके वाराहपुराणमें पंचगव्यके भक्षणसे तत्क्षण जन्मभरके पापोंसे छूटना लिखा है । यथाः
१ गोका मूत्र, गोवर, घी, दूध और दहीको 'पंचगन्य' कहते है।