Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 88
________________ प्रन्य-परीक्षा । . . परन्तु ग्रंथकारका ऐसा लिखना बिल्कुल मिथ्या है । जयधवल एक सिद्धान्त ग्रंथ है, उसका इस प्रकारका विषयही नहीं है । इसके बाद जिनसेनत्रिवर्णाचारमें, पुत्रोंकी इस इच्छाके सिलसिलेमें,. 'यथाह जिनचंद्रचूडामणौ' ऐसा लिख कर यह श्लोक दिया है: "ऋतौ तु गर्भशंकित्वात्लानं मैथुनिनः स्मृतम् । अनृतौ तु सदा कार्य शौचं मूत्रपुरीषवत् ॥” आचारादर्शमें इस श्लोकको 'वृद्धशातातप' का लिखा है और वृद्धशातातपकी स्मृतिमें यह श्लोक नं० ३३ पर दर्ज है। इस श्लोकके अनन्तर आचारादर्शमें 'गौतम' का नामोल्लेख करके गबमें मैथुनी शौचका कुछ वर्णन दिया है। जिनसेनत्रिवर्णाचारमें भी 'तथा च गौतमः । लिखकर, यह सब वर्णन उसी प्रकारसे उद्धृत किया है। यहाँ न बदलनेका कारण स्पष्ट है । जैनियोंमें 'गौतम ' महावीर स्वामीके मुख्य गणधरका नाम है और हिन्दूधर्ममें भी 'गौतम' नामके एक ऋषि हुए हैं । नामसाम्यके कारण ही त्रिवर्णाचारके कर्ताने उसे ज्योंका त्यों रहने दिया है। अन्यथा और बहुतसे स्थानों पर उसने जान बूझकर हिन्दूधर्मके दूसरे ऋषियोंके स्थानमें 'गौतम' का परिवर्तन किया है। त्रिवर्णाचारके कर्ताका अभिप्राय 'गौतम' से गौतमगणधर है । परन्तु उसे गौतमके नामसे उल्लेख करते हुए कहीं भी इस बातका ज़रा ख़याल नहीं आया कि गौतमगणधरका बनाया हुआ कोई ग्रंथ नहीं है, जिसके नामसे कोई वचन उद्धृत किया जाय; और जो द्वादशांग सूत्रोंकी • रचना उनकी की हुई थी वह मागधी भाषामें थी, संस्कृत भाषामें नहीं थी जिसमें उनके वचन उद्धृत किये जा रहे हैं । अस्तु; गौतमके हवालेसे दिये हुए इस गद्यके पश्चात् जिनसेनत्रिवर्णाचारमें, 'तत्राह महाधवले' ऐसा लिखकर यह श्लोक दिया है:-- ८१

Loading...

Page Navigation
1 ... 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123