Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 90
________________ ग्रन्थ- परीक्षा | पात्रकेसरिणा ' लिखकर कुछ गद्य नकुल किया है, जिसमें यह कथन है कि कैसी स्त्रीसे, कैसी हालत में और कौन कौन स्थानोंमें मैथुन नहीं करना चाहिए। यह सव गद्य आचारादर्शमें क्रमशः वसिष्ठ और विष्णुके हवाले से उद्धृत किया है। इस प्रकार आचारादर्श और जिनसेनत्रिवर्णाचार में ' शयनविधि' का यह सब कंथन समाप्त होता है । ऊपरके . इस समस्त कथनसे, पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं कि जिनसेनत्रिवर्णाचारके बनानेवालेने जैनके नामको भी लज्जित करनेवाला यह कैसा घृणित कार्य किया है और किस प्रकारसे श्रीमद्भद्रबाहु, पुष्पदंत, संमंतभद्र, उमास्वामी, पूज्यपाद, अकलंकदेव, माणिक्यनन्दि और पात्रकेसरी. जैसे प्राचीन आचार्यों तथा घवल, जयधवल और महाधंवल जैसे प्राचीन ग्रंथोंके पवित्र नामको बदनाम करनेकी चेष्टा की है । क्या इससे भी अधिक जैनधर्म और जैन समाजका कोई शत्रु हो सकता है ? कदापि नहीं । ( ३ ) जिनसेंनत्रिवणीचारके १७ वें पर्वमें सूतकंके चार भोदोको वर्णन करते हुए 'आर्तव नामके सूतकका कथन करनेकी प्रतिज्ञा इस प्रकार की गई है. -- " सूतकं स्याच्चतुर्भेदमार्तवं सौतिकं तथा ।। मार्त तत्संगजं चेति तत्रार्तवं निगद्यते ॥ ४ .. इस प्रतिज्ञावाक्यके अनन्तर प्रायः गद्यमें एक लम्बा चौड़ा अशौंचका वर्णन दिया है और इसी वर्णनमें यह १७ वाँ पर्व समाप्त कर दिया है । परन्तु इस सारे पर्वमें कहीं भी उपर्युक्त 'प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया है । अर्थात कहीं भी 'आर्तव नामके सूतक या अशौचक कथन नहीं किया है । इस पर्व कथन है 'जननाशौच' और 'मृताशौ च का जिसकी कोई प्रतिज्ञा नहीं की गई । १८ वे पर्वमें भी पुनः अशी 7: * 1 - 'चका 'वर्णन पाया जाता है । परन्तु यह वर्णन गद्यमें न देकर "केवल पयमें किया है । इस पर्वका प्रारंभ करते हुए लिखा है कि 'अथ वृत्तेन ८६

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