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जिनसेन-त्रिवर्णाचार ।
"द्वावेतावशुची स्यातां दम्पती शयनं गतौ ।
शयनादुत्थिता नारी शुचिः स्यादशुचिः पुमान् ॥" आचारादर्शमें यह श्लोक 'वृद्धशातातप' के हवालेसे उदघृत किया है और वृद्धशातातपकी स्मृतिमें नं० ३४ पर दर्ज है। त्रिवर्णाचारके कर्ताका इस श्लोकको 'महाधवल 'जैसे सिद्धान्त ग्रंथका बतलाना नितान्त मिथ्या है। __ इस श्लोकके वाद आचारादर्शके अनुसार जिनसेनत्रिवर्णाचारमें इसी विषयका कुछ गद्य दिया गया है और फिर 'अथ धवलेप्युक्तं ' (धवल ग्रंथमें भी ऐसा ही कहा है ) ऐसा लिखकर सात श्लोक दिये हैं। उनमेंसे पाँच श्लोकोंमें यह लिखा है कि कैसी कैसी स्त्रीसे और किस किस स्थानमें भोग नहीं करना चाहिए । शेष दो श्लोकोंमें पोंके नामादिकका कथन किया है । आचारादर्शमें ये सव श्लोक विष्णुपुराणके हवालेसे उधृत किये हैं। त्रिवर्णाचारके कर्ताने विष्णुपुराणके स्थानमें 'अथ'धवलेप्युक्तं' ऐसा बना दिया है । इन सातों श्लोकोंमेंसे अन्तके दो श्लोक इस प्रकार हैं:
"चतुर्दश्यष्टमी चैव अमावास्याथ पूर्णिमा । पर्वाण्येतानि राजेन्द्र रविसंक्रान्तिरेव च ।। तैलस्त्रीमांसभोगी च पर्वस्वेतेषु यः पुमान् । विण्मूत्रभोजनं नाम प्रयाति नरकं नरः॥" इन दोनों श्लोकोमेंसे पहले श्लोकमें जिन 'अमावस्या' 'पूर्णिमा और 'रविसंक्रान्ति' को पर्व वर्णन किया है, वेजैन पर्व नहीं हैं; और दूसरे श्लोकमें जो यह कथन किया है कि, इन पर्वोमें तैल, स्त्री और -मांसका सेवन करनेवाला मनुष्य विष्ठा और मूत्र नामके नरकमें जाता है, वह सब जैनसिद्धान्तके विरुद्ध है । इन सब श्लोकोंके अनन्तर, जिन: सेनत्रिवर्णाचारमें, पात्रकेसरी (विद्यानन्द) के हवालेसे ' तथा च