Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 87
________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। "भवतीनां कामाविहन्ता पातकी स्यात् इति । यथा ता . अब्रुवन् वरं वृणीमहे ऋत्वियात्मजां विन्दामहे काममाविजनिनोःसंभवाम इति । तस्मात् ऋत्वियात्रियः प्रजा विदंति काममाविजनिनोः संभवंति वरं वृतं तासा मिति ।" जिनसेनत्रिवर्णाचारामें भी इस 'वर' को इन्द्रकाही दिया हुआवतलाया है और मिताक्षरा टीकाके अनुसार 'स्त्रीणां परमिन्द्रदत्तमनुस्मरन् । ऐसा लिखकर वरके वही शब्द ज्योंके त्यों नकल कर दिये हैं जो ऊपर उधृत किये गये हैं। इस वरका अर्थ इस प्रकार है कि:___ "जो तुह्मारी कामनाको न करेगा वह पातकी होगा-वे स्त्रिये बोली कि हम वरको स्वीकार करती हैं और ऋतुसे हमारे प्रजा ( संतान) हो और प्रजाके होने तक कामकी चेष्टा रहे । इसी लिए स्त्रिये ऋतुसेही संतानको प्राप्त होती हैं और संतान होने तक कामचेष्टा बनी रहती है, यही स्त्रियांका वर है।" जैनसिद्धान्तसे थोड़ा भी परिचय रखनेवाले पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यह कथन जैनसिद्धान्तके बिलकुलही विरुद्ध है। परन्तु फिर भी त्रिवर्णाचारका कर्ता, मणिक्यनन्दि जैसे प्राचीन आचार्योंको ऐसे उत्सूत्र वचनका अपराधी ठहराता है। इस धृष्टता और धूर्ताताका भी कहीं कुछ ठिकाना है !! इस 'वर' के पश्चात, जिनसेनत्रिवर्णाचारमें 'इन्द्रवरे काठकप्रचनं यथा ' ऐसा लिखकर उपर्युक्त 'यथाकामी...' इत्यादि श्लोकके उत्तरार्धकी कुछ टीका दी है और फिर यह लिखा है कि, भोग करते समय कैसे कैसे पुत्रोंकी इच्छा करे, अर्थात् पुत्रोंकी इच्छाओंके संकल्प दिये हैं। इन संकल्पोंका कथन करते हुए एक स्थानपर लिखा है कि “यथोक्तं जयधवले ' अर्थात् जैसा 'जयधवल' शास्त्रमें कहा है ।

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