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जिनसेन-त्रिवर्णाचार।
पुष्पदंत और समन्तभद्रके हवालेसे उद्धृत किये हुए इन पाँचों श्लोकोंमें और इनसे पहले श्लोकमें यह लिखा है कि 'जो कोई मनुष्य अपनी ऋतुस्नाता (मासिक धर्म होनेके पश्चात् स्नान की हुई ) स्त्रीके साथ भोग नहीं करता है, वह घोर नरकमें जाता है और उसको ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, इत्यादिका पाप लगता है इसी प्रकार जो ऋतुकालको छोड़कर दूसरे समयमें अपनी स्त्रीसे भोग करता है वह भी ऋतुकालमें भोग न करनेवालेके समान पापी होता है। ये सब वचन जैनधर्म और जैनियोंकी कफिलासोफीके बिलकुल विरुद्ध हैं और इस लिए कदापि जैनाचार्योंके नहीं हो सकते।
उपर्युक्त श्लोकोंके बाद, जिनसेन त्रिवर्णाचारमें, 'तथा च उमास्वातिः' ऐसा लिखकर, यह श्लोक दिया है:
" षोडशनिशाः स्त्रीणां तस्मिन्युग्मासु संविशेत् । ब्रह्मचार्येव पर्वाण्याद्याश्चतस्त्रश्च वर्जयेत् ॥” यह ' याज्ञवल्क्यस्मृति' के पहले अध्यायके तीसरे प्रकरणका श्लोक नं० ७९ है । श्रीउमास्वाति या उमास्वामि महाराजका यह वचन नहीं है । आचारादर्शमें भी इसको याज्ञवल्क्यका ही लिखा है। इसके पश्चात् जिनसेनत्रिवर्णाचारमें उपर्युक्त श्लोककी 'मिताक्षरा' टीकाका कुछ अंश देकर याज्ञवल्क्यस्मृतिके अगले श्लोक नं० ८० का पूर्वार्ध दिया है और फिर पूज्यपादके हवालेसे 'पूज्यपादेनोक्तं' ऐसा लिखकर ये वाक्य दिये हैं:
"बुधे च योषां न समाचरेत् । तथा पूर्णासुः योषित्परिवर्जनीया। तथा योषिन्मघाकृत्तिकोत्तरासु । सुस्थ इन्दौ सकृत्पुत्रं लक्षण्यं जनयत्पुमान् ॥"