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जिनसेन-त्रिवर्णाचार।
दुसरे नम्बरका वचन विष्णुका है । इसके अन्तमें 'विष्णु । ऐसा नाम नहीं दिया है। यह पूरा वाक्य ' असपिण्डे स्ववेश्मनि मृते एक रात्रमिति' ऐसा है । मिताक्षरामें भी इसको विष्णुका ही लिखा है। तीसरे नम्बरका वाक्य बृहस्पतिका है जिसके स्थानमें ' तथा च गौतमः' बनाया गया है । मिताक्षरामें भी 'बृहस्पतिका' लिखा है। चौथे नम्बरका वाक्य 'प्रचेताः' नामके एक हिन्दू ऋषिका है। इसके प्रारम्भमें 'प्रचेता' ऐसा नाम भी दिया है। परन्तु मालूम होता है कि त्रिवर्णाचारके कर्ताकी समझमें यह कोई नाम नहीं आया है और इस लिए उसने इस 'प्रचेता:' को भी वाक्यके अन्तर्गत कोई शब्द सम झकर ज्यों का त्यों रहने दिया है । इस वाक्यका अन्तिम भाग, 'मृते चत्विजी...' मिताक्षरामें 'प्रचेताके' नामसे उल्लिखित है। पाँचवें नम्ब-. रका वाक्य वसिष्ठ ऋषिका वचन है। इसके अन्तमें 'धर्मों व्यवस्थितः' इतना पद और था जिसके स्थानमें 'गौतमः' बनाया है । मिताक्षरों में भी इसको वसिष्ठका ही वचन लिखा है।
(घ) एक स्थानपर 'श्रीसमन्तभद्रः' ऐसा लिखकर निम्न लिखित दो श्लोक दिये हैं:
"प्रेतीभूतं तु यः शूद्रं ब्राह्मणो ज्ञानदुर्वलः । अनुगच्छेनीयमानं स त्रिरात्रेण शुद्धयति । त्रिरात्रे तु ततश्चीर्णे नदीं गत्वा समुद्रगाम् ।
प्राणायामशतं कृत्वा घृतं प्राश्य विशुद्धयति । " ये दोनों श्लोक पराशर ऋषिके हैं और पाराशरस्मृति' में . नम्बर ४७ और ४८ पर दर्ज हैं। मिताक्षरामें भी इनका पराशरके
१.यह श्लोक मिताक्षरामें भी अंगिरा ऋषिका लिखा है। वहाँ. 'यदि ' शब्दके . स्थानमें 'अथ' दिया है।