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‘अन्य-परीक्षा।
ग्रंथोंको भी जैनग्रंथ मानते हैं । अतः यहाँ पर ग्रंथकर्ताके इस घृणित कृत्यके नमूने यत्किंचित् विस्तारके साथ दिखलाये जाते हैं:
आचारादर्शमें, 'शयनविधि' का आरंभ करते हुए, 'तत्र विष्णु. 'पुराणे"ऐसा लिखकर. निम्नलिखित तीन. लोक दिये हैं:
" कृत्तपादादिशौचस्तु भुक्त्वा सायं ततो गृही। गच्छदस्फुटितां शय्यामपि दारुमयीं नृपः। नाविशालां न वा भन्नां नासमां मलिनां न च। । नाच जन्तुमयी शय्यां त्वधितिष्ठेदनास्तृताम् ॥ प्राच्या दिशि-शिरःशस्तं याम्यायामथवा नृप। .
संदेव.स्वपतः पुंसो विपरीतं तु रोगदम् ॥" ज़िनसेनत्रिवर्णाचारमें. ये तीनों श्लोक इसी क्रमसे लिखे हैं। परन्तु 'तत्र विष्णुपुराणे.' के स्थानमें 'श्रीभद्रबाहु उक्तं' ऐसा बना दिया है । अर्थात् त्रिवर्णाचारके कर्ताने इन वचनोंको विष्णुपुराणके स्थानमें श्रीभद्रबाहुस्वामीका बतलाया है। इन तीनों श्लोकोंके पश्चात् आचारादर्शमें 'नन्दिपुराणे" ऐसा.नाम.देकर यह श्लोक लिखा है:
" नमो नन्दीश्वरायोति प्रोक्त्वा यः सुप्यते नरः।
तस्य कूष्माण्डराजभ्यो न भविष्यतिं वै भयम् ॥" इस श्लोकके.पश्चात् 'अत्र हारीतः ऐसा नाम देकर एक श्लोक और लिखा है और फिर 'अत्र शंखलिखितौ' यह दो नामसूचक "पद देकर कुछ गद्म दिया है । आचारादर्शके इसी क्रमानुसार ये सब श्लोक गद्यसहित जिनसेनत्रिवर्णाचारमें भी मौजूद हैं, परन्तु 'नन्दिपुराण, ''हारीत,' और 'शंखलिखित' इनमेंसे किसीका भी उल्लेख
१ इस श्लोकमें सोते समय ' नन्दीश्वरको ' नमस्कार करना लिखा है । जैनि· चोमें नन्दीश्वर नामका कोई देवता नहीं है। दिन्दुओंमें उसका अस्तित्व जरूर “माना जाता है।
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