Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 67
________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। है। आदिपुराणमें ऐसा है भी परन्तु इस ग्रंथमें ऐसा नहीं किया गया; इस लिए यहाँ रक्खा हुआ यह श्लोक त्रिवर्णाचारके कर्ताकी साफ़ मूढता जाहिर कर रहा है। . . “देवाघ यामिनीभागे पश्चिमे सुखनिद्रिता। अद्राक्षं पोडशस्वभानिमानत्यद्भुतोदयान् ॥ ७३ ॥ देतेषां फलं देव शुश्रूषा मे विवर्द्धते । अपूर्वदर्शनात्कस्य न स्यान्कौतुकवन्मनः ॥ ४॥ . इन दोनों श्लोकोंमेंसे पहले श्लोकमें 'इमान्' शब्दद्वारा आगे स्वप्नोंके नामकथनकी सूचना पाई जाती है। और दूसरे पद्यमें 'एतेषां। शब्दसे यह जाहिर होता है कि उन स्वमाका नामादिक कथन कर दिया.गया; अब फल पूछा जाता है । परन्तु इन दोनों श्लोकोंके मध्यमें १६ स्वप्नोंका नामोल्लेख करनेवाले कोई भी पद्य नहीं हैं । इससे ये दोनों पद्म परस्पर असम्बद्ध मालूम होते हैं। आदिपुराणके १२ वें पर्वमें इन दोनों लोकोंका नम्बर क्रमशः १४७ और १५३ है । इनके मध्यमें वहाँ पाँच पद्य और दिये हैं, जिनमें १६ स्वप्नोंका विवरण है । ग्रंथकर्ताने उन्हें छोड़ तो दिया, परन्तु यह नहीं समझा कि उनके छोड़नेसे ये दोनों श्लोक भी परस्पर असम्बद्ध हो गये हैं। "महादानानि दत्तानि प्रीणितः प्रणयीजनः । निर्माण्तिास्ततो घंटा जिनविम्बरलंकृताः॥ ३३१ ॥ चक्रवर्ती तमभ्येत्य त्रि:परीत्य कृतस्तुतिः महामहमहापूजां भक्त्या निवर्तयन्स्वयम् ॥ ३३२॥ चतुर्दशदिनान्येवं भगवन्तमसेवत ॥ पूर्वार्ध) ३३३ ॥ * " * पद्य नं० ३३१ आदिपुराणके ४१३ पर्वके श्लोक ० ८६ के उत्तरार्ध और नं. ८७ के पूर्वार्धको मिलकर बना है । श्लोक नं० ३३२ पर्व नं० ४७ के श्लोक नं. ३३७ और ३३८ के उत्तरार्ध और पूर्वाधोंकों मिलानेसे बना है । और श्लोक नं. ३३३ का पूर्वार्ध उक्त ४७ ३.पर्वके श्लोक नं० ३३८ का उत्तरार्थ है।

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