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य- परीक्षा ।
ग्रन्थ
आचंडाला
"शुद्राचावरवर्णाश्च वृपलाश्र जघन्यजा:संकीर्णा अम्बष्ठकरणादयः ॥ २३ ॥ प्रतिमानं प्रतिविस्वं प्रतिमा प्रतियातना प्रतिच्छाया । प्रतिकृतिरच पुंसि प्रतिनिधिरूपमोपमानं स्यात् ॥ ५८ ॥ वाच्यलिंगाः समस्तुल्यः सदक्षः सदृशः सह । साधारणः समानयं स्युरुत्तरपदे त्वमी ॥ ५९ ॥
इन सब श्लोकोंको देकर अन्तमें लिखा है कि, ' इति जातिकथनम् ' । इससे विदित होता है कि ये सब ३७ श्लोक ग्रंथकर्तीन जातिप्रकरणके समझकर ही लिखे हैं । परन्तु वस्तुतः ये श्लोक ऐसे नहीं हैं। यदि आदिके कुछ श्लोकोंको जातिप्रकरणसम्बन्धी मान भी लिया जाय, तो भी शेष श्लोकोंका तो जातिप्रकरणके साथ कुछ भी सम्बन्ध मालूम नहीं होता; जैसा कि अन्तकें दोनों श्लोकोंसे प्रगट है कि एकमें ' प्रतिमा ' शब्दके नाम ( पर्यायशब्द ) दिये हैं और दूसरे 'समान' शब्द के | वास्तवैम ये संपूर्ण श्लोक अमरकोश द्वितीय कांडके
शूद्र' वर्गसे उठाकर यहाँ रक्खे गये हैं । इनका विषय शब्दोंका अर्थ है, न कि किसी खास प्रकरणका वर्णन करना | मालूम नहीं. ग्रंथकर्ताने इन अप्रासंगिक इलोकोंको नकल करनेका कष्ट क्यों उठाया ।
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(घ) इस त्रिवर्णाचारके १२वें पर्वमें एक स्थान पर, 'अथ प्रसृतिस्नानं ' ऐसा लिखकर नीचे लिखे दो श्लोक दिये हैं:--
" लोकनाथेन संपूज्यं जिनेंद्रपदपंकजंम् |
वक्ष्ये कृतोऽयं सूत्रेषु ग्रंथं स्वमुक्तिदायकम् ॥ १ ॥ प्रसूतिस्वानं यत्कर्म कथितं यज्जिनागमे । प्रोच्यते जिनसेनोऽहं शृणु त्वं मगधेश्वर ॥ २ ॥ ये दोनों इलोक बड़े ही विचित्र मालूम होते हैं । ग्रंथकर्ताने इधर उधरसे कुछ पदको जोड़कर एक बड़ा ही असमंजस दृश्य उपस्थित कर
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