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ग्रन्थ- परीक्षा |
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इन पद्योंमेंसे पहले पद्यका दूसरे पयसे कुछ सम्बंध नहीं मिलता ।" दूसरे पद्यमें 'चक्रवर्ती तमभ्येत्य ' ऐसा पद आया है, जिसका अर्थ है ' चक्रवर्ती उसके पास जाकर ' । परन्तु यहाँ इस 'उस ' ( तम् ) - शब्दसे किसका ग्रहण किया जाय, इस सम्बन्धको बतलानेवाला कोई भी पद्म इससे पहले नहीं आया है। इसलिए यह पय यहाँ पर बहुत भद्दा मालूम होता है । वास्तवमें पहला पय आदिपुराणके ४१ वें पर्वका है, जिसमें भरत चक्रवर्तीनें दुःस्वमोंका फल सुनकर उनका शान्ति-विधान किया है । दूसरा पय आदिपुराणके ४७ वें पर्वका है और उस वक्त से सम्बंध रखता है, जब भरतमहाराज आदीश्वरभगवानकी स्थितिका और उनकी ध्वनिके बन्द होने आदिका हाल सुनकर उनके पास गये थे और वहाँ उन्होंने १४ दिन तक भगवानकी सेवा की थी | ग्रंथकर्ताने आदीश्वरभगवान् और भरतचक्रवर्तीका इस अवसरसम्बन्धी हाल कुछ भी न रखकर एकदम जो ४१ वें पर्वसे - ४७ वें पर्वमें छलाँग मारी है और एक ऐसा पद्य उठाकर रक्खा है जिसका पूर्व पयोंसे कुछ भी सम्बंध 'नहीं' मिलता, उससे साफ जाहिर है कि ग्रंथकर्ताको आदिपुराणके इन श्लोकोंको ठीक ठीक समझनेकी बुद्धि न थी । "
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(ख) इस त्रिवर्णाचारका दूसरा पर्व प्रारंभ करते हुए लिखा है कि---
" प्रणम्याथ महावीरं गौतमं गणनायकम् ।
प्रोवाच श्रेणिको राजा श्रुत्वा पूर्वकथानकम् ॥ १. ॥ त्वत्प्रसादाच्छुतं देव त्रिवर्णानां समुद्भवम् । अथेदानीं च वक्तव्यमाह्निकं कर्म प्रस्फुटम् ॥ २ ॥
' अर्थात् राजा श्रोणिकने पूर्वकथानकको सुनकर और महावीरस्वामी तथा गौतम गणधर को नमस्कार करके कहा कि, ' हें देव, आपके प्रसादसे मैंने त्रिवणकी उत्पत्तिका हाल तो सुना; अब स्पष्ट रूपसें आह्निक कर्म ( दिनचर्या) कथन करने योग्य है'। राजा श्रोणिक के इस
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