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जिनसेन-त्रिवर्णाचारं।
गौतमस्वामीका गीत गाया है और सोमसेन त्रिवर्णाचारका-जिसकी अपने इस ग्रंथमें नकल ही नकल कर डाली है-नाम तक भी नहीं लिया है। इसी प्रकार एक स्थानपर पं० आशाघरजीका नाम भी उड़ाया गया है; जिसका विवरण इस प्रकार है:
सोमसेनत्रिवर्णाचारक २० अध्यायमै निम्नलिखित चार पंधे पंडित ऑशाधेरके हवाले से 'अथाशीधरः' लिखकर उद्रुत किये गये हैं। यथा:" अधाशीधरस्वयं समुपविष्ठोऽधत्पिाणिपात्रेऽथ भाजने। से श्रावकगृहं गत्वा पात्रपाणिस्तदण ॥ १४६ir स्थित्वा भिक्षी धमलाभं भर्णित्वा प्रार्थयेतं वा । मानन दयित्वांग लीभीला समोडचिरात् ।। १४७ निगत्यान्यगृह गच्छनिक्षौमुक्तस्तु केचित् । भौजनीयार्थितोऽतिद्भुक्त्वा यद्भिक्षितं मनोक ॥१४ प्रार्थयतीन्यथा भिक्षा यावत्स्योदरपूरणीम् ।
लभेत प्रासंयंत्राम्मस्तत्र संशोध्य तो चरेत् ॥ १४॥ जिनसेनत्रिवणांचारक .१४व पर्वमें सोमंसनविणाचारके दसवें अध्यायकी मंगलांचरणसहित नकल होनसे ये चारों पधे भी उसमें इसी शमसे दर्ज हैं। परन्तुं इनके आरंभमें 'अाशाधरः' के स्थानमें अर्थ समतभद्रः ' लिखा हुआ है । वास्तवमें ये चारों पंद्य पै० आशाधरविरचित 'सागारधर्मामृत' के ७ वें अध्यायके हैं। जिसमें इनके नम्बर क्रमशः ४०, ४१, ४२, ४३ हैं। श्रीसमतभेद्रस्वामी के ये वचन . नहीं हैं। स्वामी समतभेद्रका अस्तित्व विक्रमकी दूसरी शताब्दीके लगभंग माना जाता है। और पं० आशीधरजी विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें हुए हैं। मालूम होती है कि जिनसेनं विवणींचारके बना नेवालेने इसी भयसें । आशाधर' की जगह समतभद्र की नीम