Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 72
________________ ग्रन्थ-परीक्षा। कनुं हाथ दिवारी सघली वस्तनई दान दीजे । पाछै अठावीस नक्षत्र अने नव ग्रहना मंत्र भणीई माने खोलै बालक वैसारिये। पिता जिमणे हाथ वैसारीई । पितानैः मातांना हाथमाहि ज्वारना दाणा देईन मंत्र भणीई । पहिलो कह्यो ते मंत्र भणीई। ए विधि करीने माता वालकनुं. हाथ दिवारी सघली वस्तुनइ दान दीजे। पूजाना करणहारने सर्व वस्तु दीजे । पाछै' ॐ तदुस्नः' ए मंत्र भणी शांति भणीई। पाछै जिमण देईने वालीइ। इति मूल अश्लेषा पूजाविधि समाप्तः।" . . संस्कृत ग्रंथमें इस प्रकारकी गुजराती भाषाके आनेसे साफ यह मालूम होता है कि ग्रंथकर्ता महाशयको स्वयं संस्कृत बनाना न आता था और जब आपको उपर्युक्त पूजाविधि किसी संस्कृत ग्रंथमें न मिल सकी, तब आपने उसे अपनी भाषामें ही लिख डाला है। और भी दो एक स्थानों घर ऐसी भाषा पाई जाती है, जिससे ग्रंथकर्ताकी निवासभूमिका अनुमान होना भी संभव है। __ योग्यताके इस दिग्दर्शनसे,पाठकगण स्वयं समझ सकते हैं कि.जिनसेन- . त्रिवर्णाचारके कर्त्ताको एक भी स्वतंत्र श्लोकवनानाआता था कि नहीं। __ यहाँ तकके इस समस्त कथनसे यह तो सिद्ध हो गया कि यह ग्रंथ (जिनसेनत्रिवर्णाचार ) आदिपुराणके कर्ता भगवजिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनका ही बनाया हुआ ., है। बल्कि सोमसेनत्रिवर्णाचारसे वादका अर्थात् विक्रमसंवत् १६६५.से.भी पीछेका बना हुआ है। साथ ही ग्रंथकर्ताकी योग्य- . ताक़ा भी कुछ परिचय मिल गया । परन्तु यह ग्रंथ वि० सं० १६६५ः .

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