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ग्रन्थ-परीक्षा।
सार्थ व्यंजनपर्ययैः समभवजानाति बोधःस्वयं, तत्सम्यक्त्वमशेषकर्मभिदुरं सिद्धाः परं नौमि वः ॥१॥ उत्कीर्णामिव वर्तितामिव हृदि न्यस्तामिवालोकय
नेता सिद्धगुणस्तुति पठति यः शाश्वच्छिवाशाधरः। · रूपातीतसमाधिसाधितवपुः पातः पतदुष्कृत
व्रातः सोऽभ्युदयोपभुक्तसुकृतः सिद्धेत्तृतीये भवे ॥१०॥ यह स्तुति पंडित आशाधरकृत 'नित्यमहोद्योत' ग्रंथसे, जिसे 'बृहच्छांतिकाभिषेक विधान' भी कहते हैं, ज्योंकी त्यों उठाकर रखी हुई है । इसके दसवें पद्यमें आशाधरजीने युक्तिके साथ अपना नाम भी दिया है। सागारधर्मामृतादि और भी अनेक ग्रंथोंमें उन्होंने इस प्रकार की युक्तिसे ('शिवाशाधरः' या 'बुधाशाधरः' लिखकर) अपना नाम दिया है। नित्य महोद्योत ग्रंथसे और भी बहुतसा गद्य पद्य उठाकर रक्खा हुआ है। इसके सिवाय उनके बनाये हुए 'सागारधर्मामृत' से भी पचासों श्लोक उठाकर रक्खे गये हैं। उनमेंसे दो श्लोक नमूनेके तौर पर इस प्रकार हैं:
" नरत्वेऽपि पशुयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः। पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतनाः ॥१४-९॥ कुधर्मस्थोऽपि सद्धर्म लघुकर्मतयाऽद्विषन् ।
भद्रः स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात् ॥१४-११॥ ये दोनों श्लोक सागारधर्मामृतके पहले अध्यायमें क्रमशः नम्बर ४ और ९ पर दर्ज हैं । आशाधर विक्रमकी १३ वीं शताब्दीमें हुए हैं। उन्होंने अनगारधर्मामृतकी टीका वि० स० १३०० के कार्तिक मासमें बनाकर पूर्ण की है । ऐसा उक्त टीकाके अन्तमें उन्हींके वचनोंसे प्रकट है । पंडित आशाधरजीके वचनोंका इस ग्रंथमें संग्रह होनेसे साफ़ जाहिर है कि यह त्रिवर्णाचार १३. वीं शताब्दीके पीछे बना है और