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ग्रन्थ-परीक्षा।
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कविज्य चंद्रलग्नपा रिपो मृतौ व्रतेऽधमाः। व्ययेन्जभार्गवौ तथा तनो मृतौ सुते सलाः ॥ १३-१९ ॥ "गर्भाष्टमेषु ब्राह्मणमुपनयेद्गर्भकादशेषु राजन्यं गर्भद्वादशेषु वैश्यमिति बहुत्यान्यथानुपपत्यागर्भपष्टगर्भसप्तमगर्माष्टमेषु सौरवष्विति वृत्तिकृव्याख्यानात्त्रयाणामपि नित्यकालता।"
ऊपरके दोनों पद्य मुहूर्तचिन्तामाणिके पाँचवे प्रकरणमें कमशः नम्बर ३९ और ४१ पर दर्ज हैं और गद्यभाग पहले पद्यकी. टीकार लिया गया है । मुहर्तचिन्तामणि और उसकी टीकाआंसे इस प्रकार गद्यपद्यको उठाकर रखने में जो चालाकी की गई है और जिस प्रकारसे अन्धकारके ज़मानेमें, लोगोंकी आँखोंमें धूल ढाली गई है, पाठकोंको उसका दिग्दर्शन आगे चलकर कराया जायगा । यहाँपर सिर्फ इतना बतला देना काफी है कि जब इस त्रिवर्णाचारमें मुहर्तचिन्तामाणिके पद्य
और उसकी टीकाओंका गद्य भी पाया जाता है, तब इसमें कोई भी संदेह बाकी नहीं रहता कि यह ग्रन्थ विक्रम संवत् १६६० से भी पीछेका बना हुआ है।
(९) वास्तवमें, यह ग्रंथ सोमसेनत्रिवर्णाचार (धर्मरसिकशास ) से भी पीछेका बना हुआ है। सोमसेन त्रिवर्णाचार' भट्टारक सोमसेनका बनाया हुआ है * । और विक्रमसंवत् १६६५ के कार्तिक मासमें बन कर पूरा हुआ है; जैसा कि उसके निम्नलिखित. पद्यसे प्रगट है :
"अब्दे तत्त्वरसर्तुचंद्र (१६६५) कालते श्रीविक्रमादित्यजे। माले कार्तिकनामनीह धवले पक्षे शरत्संभवे ॥ बारे भास्वति सिद्धनामनि तथा योगे सुपूर्णातिथौ। नक्षत्रेश्वनिनानि धर्मरसिको ग्रन्थश्चपूर्णीकृतः॥१३-२१६ ॥ * इस सोमसेनत्रिवर्णाचारकी परीक्षा भी एक स्वतंत्र लेख द्वारा की जायगी।
, -सक।
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