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जिनसेन-त्रिवर्णाचार ।
इस लिए शताब्दियों पहले होनेवाले भगवजिनसेनादिका बनाया हुआ नहीं हो सकता।
(८) अन्यमतके ज्योतिप ग्रंथों में 'मुद्धर्तचिन्तामणि' नामका एक प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह ग्रंथ नीलकंठके अनुज (छोटेभाई) रामदेवज्ञने शक संवत् १५२२ (विक्रम सं० १६५७ ) में निर्माण किया है * । इस ग्रंथ पर संस्कृतकी दो टीकायें हैं। पहली टीकाका नाम 'प्रमिताक्षरा' है जिसको स्वयं अन्यकर्ताने बनाया है और दूसरी टीका 'पीयूपधारा' नामकी है; जिसको नीलकंटके पुत्र गोविंद देवज्ञने शक संवत् १५२५ (वि. सं. १६६०) में बनाकर समाप्त किया है । इस मुहूर्तचिन्तामाणके संस्कार प्रकरणसे बीसियों श्लोक और उन श्लोकोंकी टीकाओंसे बहुतसा गद्यभाग और पचासों पय ज्योंके त्यों उठाकर इस त्रिवर्णाचारके १२वें
और १३वें पर्वमें बसे हुए हैं। मूल ग्रंथ और उसकी टीकासे उठाकर रक्से हुए पोंका तथा गद्यका कुछ नमूना इस प्रकार है:
"विमाणां व्रतवन्धनं निगदितं गर्भाजनेऽष्टमे । वर्षे वाप्यथ पंचमे क्षितिभुजां पठे तथैकादशे ॥ वैश्यानां पुनरटमेप्यथ पुनः स्याहादशे वत्सरे। कालेऽथ द्विगुणे गते निगदितं गौणं तदाहुर्बुधाः ॥१३-८॥ * यया:-" तदात्मज उदारधीविबुधनीलकंठानुजो।
गणेशपदपंकजं हदि निधाय रामाभिधः ।। गिरीशनगरे रे भुजभुनेषु चंद्रमिते ( १५२२)।
शके विनिरमादिम सलु मुहूर्तचिन्तामणिम् ॥ १४-३॥" xजैसा फि टीकाके अन्तमे दिये हुए इस पबसे प्रगट है:
"शाके तच्चतिथीमिते ( १५२५) युगगुणान्दो नीलकंठात्मभूदुग्धाधि निसिलार्थयुकममलं मोहतचिन्तामणिम् । काश्या पाक्यविचारमंदरनगेनामध्य लेखप्रियाम् । गोविन्दो विधिविद्वरोऽतिविमला पायूपधारी व्यधात् ॥ ६-५॥
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