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जिनसेन-त्रिवर्णाचार।
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जिसमें ग्रंथका नाम देते हुए परमागमके अनुसार कथन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है । यथा:'. "लोकत्रयैकनेत्रं निरूप्य परमागर्म प्रयत्नेन ।
- अस्माभिरुपोधियते विदुषां पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥३॥ ___ इस पद्यसे साफ़ तौरपर चोरी प्रगट हो जाती है और इसमें कोई संदेह बाकी नहीं रहता, कि ये तीनों पय पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रंथसे उठाकर रक्खे गये हैं। क्योंकि इस तीसरे पद्यमें स्पष्टरूपसे ग्रंथका नाम 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय ' दिया है । यद्यपि इस पयको उठाकर रखनेसे ग्रंथकर्ताकी योग्यताका कुछ परिचय ज़रूर मिलता है । परन्तु, वास्तवमें, इस त्रिवर्णाचारका सम्पादन करनेवाले कैसे योग्य व्यक्ति थे, इसका विशेष परिचय, पाठकोंको इस लेखमें, आगे चलकर मिलेगा । यहाँ पर, इस समय, कुछ ऐसे प्रमाण पाठकोंके सन्मुख उपस्थित किये जाते हैं, जिनसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाय कि यह ग्रंथ (त्रिवर्णाचार) भगवजिनसेनका बनाया हुआ नहीं है और न हरिवंशपुराणके कर्ता दूसरे जिनसेन या तीसरे और चौथे जिनसेनका ही बनाया हुआ हो सकता है:
(१) इस ग्रंथके दूसरे पर्वमें ध्यानका वर्णन करते हुए यह प्रतिज्ञा की है कि, मैं 'ज्ञानार्णव' ग्रंथके अनुसार ध्यानको कथन करता हूँ। यथाः
“ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मतम् (२-३) ज्ञानार्णव ग्रंथ, जिसमें ध्यानादिका विस्तारके साथ कथन है, श्री शुभचंद्राचार्यका बनाया हुआ है । शुभचंद्राचार्यका समय विक्रमकी ११ वी शताब्दीके लगभग माना जाता है और उन्होंने अपने इस अंथमें 'जिनसेन' का स्मरण भी किया है । इससे स्वयं ग्रंथमुखसे ही प्रगट है कि यह त्रिवर्णाचार ज्ञानार्णवके पीछे बना है और एसलिए भगव