Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 51
________________ जिनसेन-त्रिवर्णाचार। श्रीमल्लिषेणाचार्यप्रणीत महापुराणकी 'प्रशस्ति ' में जिनका उल्लेख है वे चौथे जिनसेन और जैनसिद्धान्तभास्कर द्वारा प्रकाशित सेनगणकी पट्टावलीमें जिनका नाम है वे सोमसेन भट्टारकके पट्टाधीश पाँचवें ज़िनसेन, इत्यादि । ऐसी अवस्थामें विना किसी विशेष अनुसंधानके किसीको एकदम यह कहनेका साहस नहीं हो सकता कि यह त्रिवर्णाचार अमुक ज़िनसेनका बनाया हुआ है। यह भी संभव है कि जिनसेन के नामसे किसी दूसरे ही व्यक्तिने इस ग्रंथका संपादन किया हो । इस लिए अनुसंधानकी बहुत बड़ी ज़रूरत है । ग्रंथमें ग्रंथकर्ताके नामके साथ कहीं कहीं 'भट्टारक' शब्दका संयोग पाया जाता है; पर यह संयोग इस अनुसंधानमें कुछ भी सहायता नहीं देता। क्योंकि 'भट्टारक' शब्द यद्यापि. कुछ कालसे शिथिलाचारी और परिग्रहधारीसाधुओं-श्रमणाभासों के लिए व्यवहृत होने लगा है, परन्तु वास्तवमें यह एक बड़ा ही गौरवान्वित पद है। शास्त्रोंमें बड़े बड़े प्राचीन आचार्यों और तीर्थंकरों तक के लिए इसका प्रयोग पाया जाता है । आदिपुराणमें भगवज्जिनसेनने भी 'श्रीवीरसेनइत्यात्त भट्टारकपृथुप्रथः' इस पदके द्वारा अपने गुरु 'वीरसेन' को 'भट्टारक' पदवीसे विभूषित वर्णन किया है। बहुतसे लोगोंका ऐसा खयाल है कि यह त्रिवर्णाचार आदि पुराणके प्रणेता श्रीजि नसेनाचार्यका,-जिन्हें इस लेखमें आगे बराबर ' भगवजिनसेन' लिंखा जायगा, बनाया हुआ है । परन्तु यह केवल उनका ख़याल ही खयाल है। उनके पास उसके समर्थनमें ग्रंथकी संधियोंमें दिये हुए ' इत्या' और 'भगवजिनसेन,' इन शब्दोंको छोड़कर और कोई भी प्रमाण मौजूद नहीं है । ऐसे नाममात्रके प्रमाणोंसे कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता । भगवजिनसेन के पीछे होनेवाले किसी माननीय प्राचीन आचार्यकी कृतिमें भी इस ग्रंथका कहीं नामोल्लेख नहीं मिलता। इसलिए ग्रंथक साहित्यकी जाँचको छोड़कर कोई भी उपयुक्त साधन ४५

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