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कुन्दकुन्द-भावाचार।
और १२
अन्तकी र नतरूप आवडके अंतर्गत का नाम तक भी
'श्रावकाचारमें 'सूरिवरं' के स्थानमें 'जिनविधु' की बनावट की गई
है। इस बनावटका निश्चय और भी अधिक दृढ होता है जब कि दोनों ग्रंथोंके, ऊपर उद्धृत किए हुए, पद्य नं. ९ को देखा जाता है। इस पद्यमें ग्रंथके नामका परिवर्तन है-'विवेकविलास'के स्थानमें 'श्रावकाचार बनाया गया है-वास्तवमें यदि देखा जाय तो यह ग्रंथ कदापि 'श्रावकाचार ' नहीं हो सकता । श्रावककी ११ प्रतिमाओं और १२ व्रतोंका वर्णन तो दूर रहा, इस ग्रंथमें उनका नाम तक भी नहीं है । भगवस्कुंदकुंदने स्वयं पट्पाहुइके अंतर्गत 'चारित्र पाहुड' में ११ प्रतिमा
और १३ व्रतरूप आवकधर्मका वर्णन किया है । और इस कथनके अन्तकी २७ वीं गाथामे, 'एवं सावयधम्म संजमचरणं उदेसियं सयलं' इस वाक्यके द्वारा इसी ( ११ प्रतिमा १२ व्रतरूप संयमाचरण) को श्रावधर्म बतलाया है । परन्तु वे ही कुंदकुंद अपने श्रावकाचारमें जो ख़ास श्रावकधर्मके ही वर्णनके लिए लिखा जाय उन ११ प्रतिमादिकका नाम तक भी न देवें, यह कभी हो नहीं सकता। इससे साफ
प्रगट है कि यह ग्रन्थ श्रावकाचार नहीं है, बल्कि विवेकविलासके उक्त • ९ वें पद्यमें 'विवेकविलासाख्यः ' इस पदके स्थानमें ' श्रावका' चारविन्यास' यह पद रखकर किसीने इस ग्रंथका.नाम वैसे ही श्राव
काचार रख छोड़ा है। अब पाठकोंको यह जाननेकी ज़रूर उत्कंठा होगी कि जब इस ग्रंथमें श्रावकधर्मका वर्णन नहीं है, तब क्या वर्णन है ? अतः इस ग्रन्थमें जो कुछ वर्णित है, उसका दिग्दर्शन नीचे कराया जाता है:___“ सेबेरे उठनेकी प्रेरणा; स्वमविचार; स्वरविचार; सबेरे पुरुषोंको
अपना दाहिना और स्त्रियोंको बायाँ हाथ देखना; मलमूत्रत्याग और -गुदादिप्रक्षालनविधि; दन्तधावनविधिः सबेरे नाकसे पानी पीना; तेलके कुरले करना; केशोंका सँवारना; दर्पण देखना; मातापितादिककी भक्ति
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