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कुन्दकुन्द-श्रावकाचार।
(६) ग्यारहवें उल्लासमें ग्रंथकाकार लिखते हैं कि जिस प्रकार बहु-. तसे वर्णोंकी गौओंमें दुग्ध एक ही वर्णका होता है उसी प्रकार सर्व धर्मों में तत्त्वं एक ही है । यथा
" एकवणे यथा दुग्धं बहुवर्णासु धेनुषु।
तथा धर्मस्य वैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं पुनः ॥७३ ॥ यह कथन भी जैनसिद्धान्तके विरुद्ध है । भगवत्कुंदत्कुंके ग्रंथोंसे इसका कोई मेल नहीं मिलता। इसलिए यह कदापि उनका वचन नहीं हो सकता ।
(७) पहले उल्लासमें एक स्थानपर लिखा है कि जिस मंदिर पर ध्वजा नहीं है उस मंदिरमें किये हुए पूजन, होम और जपादिक सब ही विलुप्त हो जाते हैं; अर्थात् उनका कुछ भी फल नहीं होता । यथा:
“प्रासादे ध्वजनिमुक्त पूजाहोमजपादिकम् ।
सर्व विलुप्यते यस्मात्तस्मात्कार्यों ध्वजोच्छ्रयः ॥ १७१ ॥ • यह कथन बिलकुल युक्ति और आंगमके विरुद्ध है। इसको मानते हुए जैनियोंको अपनी कमफिलासोफीको उठाकर रख देना होगा । उमा स्वामिश्रावकाचारमें भी यह पद्य आया है; उक्त श्रावकाचारपर लिखे गये परक्षिालेखमें इस पद्मपर पहले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस लिए अब पुनः अधिक लिखनेकी ज़रूरत नहीं है। . (८) आठवें उल्लासमें जिनेंद्रदेवका स्वरूप वर्णन करते हुए अठारह दोषोंके. नाम इस इस प्रकार दिये हैं:
१ वीर्यान्तराय, २ भोगान्तराय, ३ उपभोगान्तराय; ४ दानान्तरांय; ५ लाभान्तराय, ६ निद्रा, ७ भय, ८ अज्ञान, ९ जुगुप्सा,. १० हास्य,. ११ रति, १२ अरति, १३ राग, १४ देष, १५ अविरंति, १६ काम,. १७ शोक और १८ मिथ्यात्व । यथाः--
"वलभोगोपभोगानामुभयोनिलाभयो। . ... नान्तरांयस्तयां निद्रा, भीरज्ञानं जुगुप्सनम् ॥ २४॥