Book Title: Granth Pariksha Part 01
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 24
________________ ग्रन्थ-परीक्षा। "एवं व्रतं मया प्रोक्तं त्रयोदशविधायुतम् ।। निरतिचारकं पाल्यं तेऽतीचारास्तु सप्ततिः ॥ ४६१ ॥ अर्थात-मैंने यह तरह प्रकारका व्रत वर्णन किया है, जिसको अतीचारोंसे रहित पालना चाहिए और वे (व्रतोंके ) अतीचार, संख्यामें यहांपर व्रतोंकी यह १३ संख्या ऊपर उल्लेख किये हुए श्लोक नं. २५९ और ३२८ से तथा तत्त्वार्थसूत्रके कथनसे विरुद्ध पड़ती है। तत्त्वार्थसूत्रमें 'सल्लेखना' को व्रतोंसे अलग वर्णन किया है । इस लिये सल्लेखनाको शामिल करके यह तेरहकी संख्या पूरी नहीं की जासकती। व्रतोंके अतीचार भी तत्त्वार्थसूत्रमें ६० ही वर्णन किये हैं । यदि सल्लेखनाको व्रतोंमें मानकर उसके पांच अतीचार भी शामिल कर लिये. जावें तब भी ६५ (१३४५) ही अतीचार होंगे । परन्तु यहांपर व्रतोंके. अतीचारोंकी संख्या ७० लिखी है, यह एक आश्चर्यकी बात है। सूत्रकार भगवान उमास्वामिके वचन इस प्रकार परस्पर या पूर्वापर विरोधको लिये हुए नहीं हो सकते। इसी प्रकारका परस्परविरुद्ध कथन और भी कई स्थानोंपर पाया जाता है। एक स्थानपर शिक्षाव्रतोंका वर्णन करते हुए लिखा है: "स्वशक्त्या क्रियते यत्र संख्याभोगोपभोगयोः। भोगोपभोगसंख्याख्यं तत्तृतीयं गुणव्रतम् ॥ ४३०॥" इस पद्यसे यह साफ प्रगट होता है कि ग्रंथकर्ताने, तत्त्वार्थसूत्रके विरुद्ध, भोगोपभोग परिमाण. व्रतको, शिक्षाबतके स्थानमें तीसरा गुणव्रत . वर्णन किया है। परन्तु इससे पहले खुद ग्रंथकर्त्ताने 'अनर्थदण्डविरंति'. को ही तीसरा गुणवत वर्णन किया है। और वहां दिग्विरति, देशविरति तथा अनर्थदण्डविरति, ऐसे तीनो गुणव्रतोंको कथन किया है। गुणवतों २१.

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