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कुन्दकुन्द-श्रावकाचार।
कहा जाता है कि यह ग्रंथ (श्रावकाचार ) भी उन्हीं भगवत्कुंदकुंदाचार्यका बनाया हुआ है जोश्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य माने जाते हैं।
और न सिर्फ कहा ही जाता है, बल्कि खुद इस श्रावकाचारकी अनेक संघियोंमें यह प्रकट किया गया है कि यह ग्रंथ श्रीजिनचंद्राचार्यके शिष्य कुंदकुंदस्वामीका बनाया हुआ है। साथ ही ग्रंथके मंगलाचरणमें 'वन्दे जिनविधं गुरुम् ' इस पदके द्वारा ग्रंथकर्त्ताने 'जिनचंद्र' गुरुको नमस्कार करके और भी ज्यादह इस कथनकी रजिस्टरी कर दी है। परन्तु जिस समय इस ग्रंथके साहित्यकी जाँच की जाती है, उस समय ग्रंथके शब्दों
और अर्थोपरसे कुछ और ही मामला मालूम होता है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें श्रीजिनदत्तसूरि नामके एक आचार्य विक्रमकी १३वीं शताब्दीमें हो गये हैं। उनका बनाया हुआ ' विवेक-विलास' नामका एक ग्रंथ है । सम्बत् १९५४ में यह ग्रंथ अहमदाबादमें गुजराती भाषाटीकासहित छपा था। और इस समय भी बम्बई आदि स्थानोंसे प्राप्त होता है। इस 'विवेकविलास' और कुंदकुंदश्रावकाचार दोनों ग्रंथोंका मिलान करनेसे मालूम होता है कि, ये दोनों ग्रंथ वास्तबमें एक ही हैं। और यह एकता इनमें यहाँतक पाई जाती है कि, दोनोंका विषय और विषयके प्रतिपादक श्लोकही एक नहीं, बल्कि दोनोंकी उल्लाससंख्या, आदिम मंगला चरण और अन्तिम काव्य+भी एक ही है। कहनेके लिए दोनों ग्रंथों में . *दोनों ग्रंथोंका आदिम मंगलाचरण:: "शाश्वतानन्दरूपाय तमस्तोमैकमास्वते ।
• सर्वज्ञाय नमस्तस्मै कस्मैचित्परत्माने ॥ १॥ (इसके सिवाय मंगलाचरणके दो पद्य और हैं।) +दोनों ग्रंथोंका अन्तिम काव्यः
" स श्रेष्ठः पुरुषाप्रणीः स सुभटोतंसः प्रसंसास्पदम्, स प्राशः स कलानिधिः स च मुनिः स मातले योगवित् । स ज्ञानी स गुणिव्रजस्य तिलक जानाति यः स्वां मृतिम्, निर्मोहः समुपार्जयत्यथ पदं लोकोत्तरम् शाश्वतम् ॥ १२-१२ ॥..."