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अन्ध-परीक्षा।
स्वस्यानस्यापि पुण्याय कुप्रवृत्तिनिवृत्तये। .
श्रावकाचारविन्यासग्रंथः प्रारभ्यते मितः ॥९ : दोनों ग्रंथोंके इन चारों पद्योंमें परस्पर ग्रंथनाम और ग्रंथकर्ताके गुरुनामका ही भेद है। समूचे दोनों ग्रंथोंमें. यही एक वास्तविक भेद पाया जाता है। जब इस नाममात्रके (ग्रंथनाम-ग्रंथकर्तानामके). भेदके सिवा और तौरपर ये दोनों ग्रंथ एक ही हैं, तब यह ज़रूरी है कि इन दोनोंमेंसे, उभयनामकी सार्थकता लिये हुए, कोई एक ग्रंथही असली हो सकता है; दूसरेको अवश्य ही नकली या बनावटी कहना होगा।.. · · अब यह सवाल पैदा होता है कि इन दोनों ग्रंथोंमेंसे असली कौन है और नकली या वनावटी कौनसा ? दूसरे शब्दोंमें यों कहिए कि क्या पहले कुंदकुंदश्रावकाचार मौजूद था और उसकी संधियों तथा दो पद्योंमें नामादिकका परिवर्तनपूर्वक नकल करके जिनदत्तसूरि या उनके नामसे किसी दूसरे व्यक्तिने उस नकलका नाम 'विवेकविलास.' रक्खा है; और इस प्रकारसे दूसरे विद्वानके इस ग्रंथको अपनाया है ? अथवा पहले विवेकविलास ही मौजूद था और किसी व्यक्तिने उसकी इस प्रकारसे नकल करके उसका नाम 'कुंदकुंदश्रावकाचार' रख छोड़ा है; और इस तरहपर अपने क्षुद्र विचारोंसे या अपने किसी गुप्त अभिप्रायकी सिद्धिके लिए इस ग्रंथको भगवत्कुंदकुंदके नामसे प्रसिद्ध करना चाहा है। . .
यदि कुंदकुंदश्रावकाचारको, वास्तवमें, भगवत्कुंदकुंदस्वामीका बनाया हुआ माना जाय, तव यह कहना ही होगा कि, विवेकविलास उसी परसे नकल किया गया है..। क्यों कि श्रीकुंदकुंदाचार्य जिनदत्तसूरिसे एक हजार वर्षसे भी अधिक काल पहले हो चुके हैं। परन्तु, ऐसा मानने और कहनेका कोई साधन नहीं है। कुंदकुंदश्रावकाचारमें श्रीकुंदकुंदस्वामी और उनके गुरुका नामोल्लेख हानेके सिवा. और कहीं भी इस