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ग्रन्थ
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ग्रन्थ-परीक्षा। . . "हरितालपभैशी नेत्रीलरहं मदः ।
रक्तपः सितैर्ज्ञानी मधुपिङ्गैर्महाधनः ॥ ३४३ ॥ सेनाध्यक्षो गजाज्ञः स्यादी_क्षचिरजीवितः।
विस्तीर्णाक्षो महाभोगी कामी पारावतेक्षणः ॥४४॥" . इन दोनों पद्यों से एक ने रंगकी अपेक्षा और इसमें आकार चित्तारकी अपेक्षा क्यन है । परन्तु कुंदावनाचारमें पहले पया पूर्वार्ध और दूसरेना उत्तारार्थ मिलाकर एक पय दिया है, जिसका नं. ३२३ है। इससे साफ़ प्रगट है शिबानी दोनों उत्तराई और पूर्वार्ध । छूट गये हैं। .: (२) विवकवितासके इसी आवें उल्लासमें दो पद्य इस प्रकार हैं:--.
- "नद्याः परतवाड़ोष्ठात्तीरदोः सलिलाशयाद। " निर्वततात्मनोऽभीष्टाननुज्य प्रवासिनः ॥ ३५६ ॥ __. नासहायो न चाज्ञात व दातः सम तथा । - नातिमव्यं दिन नार्धरात्रौ मागे वुधो बजेर ॥३६॥
इन दोनों पचामने पहले पद्य यह वर्णन है कि यदि कोई अपनाजन परदेशको जाये तो उसके साथ हाँतक जाकर लेट आना. चाहिए । और दूसरेमें यह क्यन है कि मध्याह्न और अर्थ रात्रिके समय बिना अपने किती सहायकको साथ लिये, अशात मनुष्यों तथा गुलामाके . साय मार्ग नहीं चलना चाहिए। कुंदाईभावकाचारमें इन दोनों पयोंके स्थानमें एक पत्र इस प्रकारसे दिया है
"नद्याः परतटानोठालीरद्रोः सलिलाशयात् ।
नातिमध्यं दिने नार्धरात्री मागे बुधो व्रजेत् ॥ ३५८ ॥ यह पद्य दहा ही विलक्षण मालूम होता है । पूर्वार्धा उत्तरार्थत्ते कोई सम्बंध नहीं मिलता, और न दोनोको मिलाकर एक अर्थ ही नि