Book Title: Gacchayar Ppayanna
Author(s): Vijayrajendrasuri, Gulabvijay
Publisher: Amichand Taraji Dani

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Page 18
________________ कह्यं तेम थई शके छे, पण ते भावमंगळ छे. ते अन्यना जाणवामां आवी शकतुं नथी. ग्रंथकर्ताने तो मानसिक नमस्कारादिकथी जरूर लाभ थाय पण प्रमादी शिष्यने तेमज श्रोताने शो लाभ थाय ? मंगळना अभावे विघ्न उपस्थित थतां तेनुं अध्ययन अपूर्ण रही जाय. जो ग्रंथनी आदिमां मंगळ होय तो तेनुं अध्ययन कर्या पछी ज प्रमादी शिष्यने आगळ वधवानुं रहे, अने मंगळना सामर्थ्यथी ते निरुपद्रव बनी पोतानुं इच्छित कार्य पण पूर्ण करी शके. वळी ग्रंथनां प्रारंभमां इष्टदेवने नमस्कार विगेरे जोईने तेने श्रद्धा थाय के आ ग्रंथ आगमानुसारी छे, तेमां वीतराग भगवंतने नमस्कार छे माटे ते उपादेय छे एवी प्रतीति पण थाय. आ बधा कारणोथी मंगळनी आवश्यकता सिद्ध थाय छे. कह्यं छे के - मंगलपुव्वपवत्तो, पमत्तसीसो वि पारमिह जाइ । सत्थिविसेसण्णा, गोरवादिह पयट्टेज्जा ॥ १ ॥ मंगळनी पुष्टि करनारी आ गाथामां कहेवामां आव्युं छे के 'मंगळ करीने प्रवृत्ति करेल प्रमादी शिष्य पण शास्त्रनो पारंगत - पारगामी थाय छे, माटे आदरमान- बहुमानपुरस्सर जरूर मंगळ करवुं.' - आम छतां पण वादी पोताना बचावमां एक वधु दलील रजू करी कहे छे के - मंगळ विनाना पण घणां ग्रंथो जोवामां आवे छे अने तेवा ग्रंथो श्रोतासमूह सांभळे पण छे तो तमे मंगळ मा आलो बधो आग्रह शामाटे राखो छो ? आनो सरळ अने स्पष्ट जवाब एछे के - मंगळ ए शिष्टाचार पाळवानुं कारण छे. पूर्वधर पुरुषो कोई पण मनवांछित कार्य माटे प्रवृत्ति करता त्यारे मंगळ करी ज-इष्टदेवने प्रणाम करीने ज प्रवृत्ति करता. मूळ ग्रंथकर्ता पण पूर्वधर पुरुष छे एटले पण मंगळनी आवश्यकता प्रतिपादन थाय छे. कह्युं छे के. शिष्टाः शिष्टत्वमायान्ति, शिष्टमार्गानुपालनात् । तल्लङ्घनादशिष्टत्वं, तेषां समनुपद्यते ॥ १ ॥ ‘शिष्टमार्गना पालनथी-वडील पुरुषोए फरमावेल नीतिरीतिने अनुसरवाथी शिष्टपणुं प्राप्त थाय छे अने तेओनी मर्यादानुं उल्लंघन करवाथी लघुता प्राप्त थाय छे' आ कारणथी ज पूर्वाचार्योए मंगळ करवानी प्रणालिका अंगीकार करी छे. आवी रीते मंगळनी पूर्ण रीते पुष्टि कर्या पछी हवे संबंध, अभिधेय अने प्रयोजन ए त्रणे कारणोनी दृढतानुं वर्णन करे छे. असंबंध ग्रंथ होय तो श्रोतावर्ग तेमां रस ले नहिं. पंडित पुरुषो पण दश दाडिमादिक असंबंध वाक्यनी माफक तेमां प्रवृत्ति करे नहिं. वली नाम विनानो ग्रंथ होय तो पण श्रोतावर्ग सांभळे नहिं. कागड़ाना दांतनी परीक्षानी जेम ते निष्फळ ज जाय. वळी ग्रंथनुं कशुं प्रयोजन न होय तो मंदबुद्धिवाला प्राणीओ तेना श्रवणमां तथा अध्ययनमां उद्युक्त ज न थाय; कारण के कंटक - कांटानी शाखानुं मर्दन करवानो कोई विचार करे ? अर्थात् न ज करे. तेवी रीते प्रयोजन विनाना ग्रंथना श्रवण अभ्यासमा कोई पण प्रवृत्ति न ज करे. श्रीगच्छाचार - पयन्ना - ३

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