Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 10
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषार्टीका सहित भाषार्थ-हे मूढ प्राणी ! ये भुवनत्रयके प्राणी इन्द्रिनिके विषयिनितें उपज्या प्रतिक्षण विनाशीक सुखकेविषै रतिप्रीतिकरि विनाशकू प्राप्तभये सो तू जाणि ॥ भवाब्धिप्रभवाः सर्वे सम्बन्धा विपदास्पदम् । संभवन्ति मनुष्याणां तथान्ते सुष्टुनीरसाः ॥९॥ भाषार्थ-या संसारमें जेते संसाररूप समुद्रते भये मनुष्यनिके सबन्ध हैं ते सर्व आपदाके ठिकाणे हैं. तहां अंतविषै अतिशयकरि नीरस है. यह प्राणी तिनि” प्रीति करै है सुखमानै है सो भ्रम है ॥ वपुर्विद्धि रुजाक्रान्तं जराक्रान्तं च यौवनम् । ऐश्वर्यं च विनाशान्तं मरणान्तं च जीवितम् ॥१०॥ भाषार्थ हे आत्मन् ! शरीरकू तौ तू रोगकरि व्याप्त जाणि अर यौवनकू जराकरि व्याप्त जाणि बहुरि ऐश्वर्यकू विनाशपर्यन्त जाणि बहुरि जीवितकू मरणपर्यन्त जाणि. भावार्थऐसें ए पदार्थ प्रतिपक्षसहित जानने ॥ ये दृष्टिपथमायाताः पदार्थाः पुण्यमूर्तयः । पूर्वाह्ने न च मध्याह्ने ते प्रयान्तीह देहिनाम्॥११॥ भाषार्थ-या संसारविषै जे पुण्यकी मूर्ति भले भले पवित्र पदार्थ प्रभातविष प्राणीनिके दृष्टिगोचर आये थे, ते मध्याह्नकालविप नाहीं देखिये हैं जाते रहे हैं. हे आत्मन् । तू ऐसैं जाणि। For Private And Personal Use Only

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