Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 64
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुरेशां भाषाटीकासहिता. ५९ अर बडे महतं आचार्य मुनि हैं तिनिकरि चमत्कारका करनेवाला बाह्य अर अन्तरंग स्वरूप तप है सो तपिये है. कैसे हैं आचार्य ? तप करनेकू धीरवीर हैं समर्थ हैं. बहुरि कैसे हैं ? संसारका सन्तान परिपाटी आगामी होनेकी शंकाकरियुक्त है. यह बिचारै है जो अबताई संसारके दुःख सहे अव तपकरि कर्मकी निर्जराकरि संसारकी परिपाटीका अभाव करेंगे. यह विचार दोऊ प्रकारके तपकू समर्थ होय करै हैं ॥ तत्र बाह्यं तपःप्रोक्तमुपवासादि षड़िधम् । प्रायश्चित्तादिभिर्मेंदरन्तरङ्गैव षड्दिधम् ॥ ६ ॥ भाषार्थ-तिसतपविषै बाह्य तप है सो तो उपवासादि क भेदकरि छहभेदरूप कह्या है. ते–अनशन अवमोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तसय्यासन कायक्लेश एसैं छह भेद हैं. बहुरि अन्तरंग तप है सो प्रायश्चित आदि भेदनिकरि छह प्रकार हैं-ते प्रायश्चित विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान ऐसे छह भेद हैं. तिनिका स्वरूप विशेषकरि तत्त्वार्थसूत्रकी टीकातें जानना ॥ निर्वेदपदवीं प्राप्य तपस्यति यथा यथा। यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयाणि तथा तथा ॥७॥ भाषार्थ-संयमी मुनि है सो वैराग्य पदवी• प्राप्त होय करि जैसे २ तप करै है तैसैं कर्म २ दुर्जय है तोउ. तिनिकू क्षय करै है. ॥ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86