Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. याका संक्षेप ऐसा जो यह आत्मा अनादितैं अपने स्वरूपकं भूलि रह्या है या आवभावकरि कर्मनिकं बांधे है अर जब अपना स्वरूपकं जानि तिसमें लीन होय तब संवररूप होय आगामी कर्मनिकूं न बांधै, तब पूर्वबंधकी निजरा करि मोक्ष प्राप्त होय ताके बाह्यसाधन समिति गुप्तिं धर्म अनुप्रेक्षा परीसहजय चारित्र कहे हैं. तिनिका विशेष कथन तत्त्वार्थसूत्रकी टीका जानना ॥ दोहा. निज स्वरूपमें लीनता, निश्चयसंवर जानि । समिति गुप्ति संयमधरम, घरे पापकी हानि ॥८॥ इति संवरानुप्रेक्षा ॥ ८ ॥ अथ निजारनुप्रेक्षा लिख्यते । आगे निर्जरा भावनाका व्याख्यान करे हैं तहां निर्जराका स्वरूप तथा जिनिकै यह होय तिनिकं क है हैं, यया कर्माणि शीर्यन्ते बीजभूतानि जन्मनः प्रणीता यमिभिः सेयं निर्जरा जीर्ण बन्धनैः ॥ १ ॥ भाषार्थ - जाकरिसंसारके बजिभूत जे कर्म ते गलें झड़ें सो निजरा संयमी मुनिनिनै कही हैं कैसे हैं ते मुनि जीर्ण भये हैं कर्मके बन्धन जिनिके ऐसे हैं ॥ सकामाकामभेदेन द्विधा सा स्याच्छरीरिणाम् । निर्जरायमिना पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् ||२|| For Private And Personal Use Only

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