Book Title: Dwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Author(s): Shubhchandracharya
Publisher: Jain Granth Ratna Karyalay

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Page 78
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. तस्माद्यादे विनिष्क्रान्तः स्थावरेषु प्रजायते । समयवामोति प्राणी केनापि कर्मणा ॥ २ ॥ ७३ भाषार्थ - बहुरि तिस निगोदतें जो निकसै तौ पृथिवी आदिकायनिविधै उपजै यह प्राणी कोई कर्मकरि त्रसपणाकूं ET कर पा है || पर्याप्तस्तथा संज्ञी पञ्चाक्षोऽवयवान्वितः । तिर्यञ्चोऽपि भवत्यङ्गी तन्न स्वल्पाशुभक्षयात् ॥ ३ ॥ भाषार्थ - बहुरि सपणा भी पावै तौ तहां तिथेच यौनिनिर्विषै पर्याप्तपणा पावना थोड़ा अशुभका क्षयतें नाही पात्र है बहुत पापका क्षयतें पाँव है. तहां भी मनसहित पंचेन्द्रियपणा संज्ञीपणा पावना तैसें ही दुर्लभ है. तहां भी सम्पूर्ण अवयव पावना दुर्लभ है ऐमैं यह प्राणी थोड़े पापके क्षयतें नाहीं होय है | नरत्वं यद्गुणोपेतं देशजात्यादिलक्षितम् । प्राणिनः प्राप्नुवन्त्यत्र तन्मन्ये कर्मलाघवात् ||४|| भाषार्थ – आचार्य कहैं हैं ए प्राणी हैं ते या संसार मैं जो मनुष्यपणा अर तहां भी गुणनिकरि युक्त अर देश जाति कुल आदिकर सहित उत्तरोत्तर कर्मके हलकापणाकरि पावै है. सो यह दुर्लभ है मैं ऐसें मानू हौं ॥ आयुः सर्वाक्षसागग्री बुद्धिः साध्वी प्रशान्तता । For Private And Personal Use Only

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