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000००..............................................................
AWARA
श्रीपरमात्मने नमः
जैनग्रन्थरत्नाकरस्थ--
रत्न ( वां.
..........
.....
666 TAWAVAN
श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिता
ज्ञानार्णवान्तर्गता द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
SSSSSSS
AND
..
.
.
जिसको
मुम्बयीस्थ जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालयके मालिकने -
संशोधनपूर्वक कर्णाटकप्रीन्टींगप्रेसमें छपाकर
प्रसिद्ध किया.
-
प्रथमावृत्तिः
मूल्य ६ आने]
डांकव्यय आधा माना.
ON
४००००००००
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प्रस्तावना.
संसारसे वैराग्य उत्पन्न करनेकेलिये जिनमतमें द्वादशानुप्रेक्षा ही है. यद्यपि जैनग्रंथरत्नाकरमें स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नामका संस्कृत छाया और भाषाटीकासहित बहूत बडा ग्रंथ इसी विषयका छप गया है परन्तु वह बहुत बडा होनेसे उसमें विशेष विषयोंका भी वर्णन हुआ है. संक्षिप्ततासे द्वादशभावनाका ही व्याख्यान हो ऐसा एक छोटासा प्रन्थ छपाकर प्रचार करनेकेलिये भरोंचनिवासी शेठचुन्नीलाल विरचंदजी नाळिएरवालोंकी अतिशय प्रेरणा होनेपर यह श्रीमच्छुभचन्द्राचार्यविरचित योगप्रदीपाधिकारस्वरूप ज्ञानार्णव नामके संस्कृत ग्रंथमेंसे द्वादशानुप्रेक्षा नामका दूसरा अध्याय उद्भित करके जयपुरनिवासी स्वर्गीय विद्वद्वर्य पं. जयचन्द्रजी छाबडाकृत वचनिकासहित इस जैनग्रन्थरत्नाकर में छपाकर सर्वसाधारणके हितार्थ प्रसिद्ध किया है इसकी नित्य स्वाध्याय करनेसे संसारदेहभोगोंसे अरुचि होकर कषायोंकी मंदता होती है और आत्महितसाधनमें प्रवृत्ति होती है. इस कारण सबको इसकी एक २ प्रति मंगाकर स्वाध्याय करना चाहिये.
जैनीभाइयोंका दास, पन्नालाल बाकलीवाल.
ता १-३-१९०५ ईसवी.
ICC.
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श्रीसहजात्मस्वरूपाय नमः।
witorश्रीवीरचंद अमीचंद नाळिएरवाला. (भरोंच बंदर) स्मारकफंड तरफथी
ज्ञानवृद्धि अर्थे प्रथम पुस्तक.
mar.
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श्री परमात्मने नमः। जैनग्रन्थरत्नाकरस्थ रत्न ८ वा. श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचित शनार्णवान्तर्गता द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
दाहा श्रीयुत वीर जिनेन्द्रकू बंदी मनवचकाय । भवपद्धति भ्रममेटिक, करै मोक्ष सुखदाय । १॥ आगें या प्राणीकू ध्यानकै ( योग्यसाधनकै ) सन्मुख होने संसारदेह भागते वैराग्य उपजावना है तहाँ वैराग्यका कारण बारह भावना (द्वादशानुप्रेक्षा) हैं तिनिका व्याख्यान करिसी तिनिके भावनेकी प्रथम ही प्रेरणा करै हैं
शार्दूलविक्रीडित छंद । सङ्गैः किं न विषाद्यते वपुरिदं किं छिद्यते नामयैः मृत्युः किं न विज़म्भते प्रतिदिन द्रुह्यन्ति किं नापदः । श्वभ्राः किं न भयानकाः स्वपनवद्भोगा न किं वश्चका येन स्वार्थमपास्य किन्नरपुरमख्ये भवे ते स्पृहा ॥१॥ __ भाषार्थ-हे आत्मन् ! या संसारविपै सग कहिरे-पन धान्य स्त्री कुटंब आदिका मिलापरूप परिग्रह हैं ते कहा ताकू
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. विषादरूप नाही करै है ? बहुरि यह शरीर है सो कहा रोगनि करि नाही छिदै है ? बहुरि मृत्यु है सो दिनप्रति तोकू ग्रासनकू कहा मुख नाही उघाड़े है ? बहुर आपदा हैं ते कहा नाहीं परिपूर्ण होय हैं अथवा कहा द्रोह नाहीं करै है ? बहुरि श्वन जे नरक, ते कहा भयानक नाहीं है ? बहुरि भोग हैं ते कहा सुपनेकी ज्यों तोडूं ठगनेवाले नाहीं हैं ? जाकरि तेरे अपने स्वार्थक् छोडिकरि इस किन्नरपुर इन्द्र जाल करिरच्या नगरसारिखे संसारविषै बांछा वत्र्ते है ?
भावार्थ-संसार देह भोग• ऐसे देखकरि भी स्वार्थ विषै बांछा करै है ताका अज्ञानपणा दिखाया है ।। फिर भी या प्राणीकी भूलिदिखावै हैं,
लोक. नासादयसि कल्याणं न त्वं तत्त्वं समीक्षसे । न वेत्सि जन्मवैचित्र्यं भ्रातोः भूतैर्विडम्बितः ॥२॥
भाषार्थ- हे भाई तू भूत जे इन्द्रियनिके विषय तिनिकरि विटंबनाकू नाही प्राप्त होय है, बहुरि तत्त्वकू नाही विचारै है. बहुरि जन्म जो संसार; ताका विचित्रपणाकू नाही जाणै है सो यह बड़ी भूलि है ।
असद्विद्याविनोदेन मात्मानं मूढ़ ! वञ्चय । कुरु कृत्यं न किं वेत्सि विश्ववृत्तं विनश्वरम् ॥३॥ भाषार्थ-हे मूढ प्राणी! असद्विद्या जो अनेक
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
खोटी कला चतुराई शृंगारादि शास्त्रविद्या; तिनिके कुतूहल करि आत्माकं मति ठगावै, किन्छू तेरे करने योग्य हितरूप कार्य करि. यह समस्त जगतका वृत्त प्रवर्तना विनाशीक है, ताहि तू कहा नाहीं जाने है ? ऐसे स्वहित के विषै प्रेरणा है ॥
समत्वं भज भूतेषु निर्ममत्वं विचिन्तय । अपाकृत्य मनःशल्पं भावशुद्धिं समाश्रय ॥ ४ ॥ भाषार्थ – हे आत्मन् ! तू भूत- जे प्राणी जीव तिनिविषै समानपणाकूं सेय, सर्व प्राणीनिकूं आपसमान जाणि, बहुरि निर्ममत्वकूं चिंतत्रन करि, ममत्व छोड़ि . कहा करिकैं? मनकी शल्यकूं दूरि करिकैं- माया मिथ्या निदान शल्यकूं चित्तमैं मति राखै. बहुरि भावकी शुद्धताकूं अंगीकार करि, ऐसा उपदेश है ॥
ओंगें बारह भावनाका अंगीकारका उपदेश करे हैं,
चिनु चिसे भृशं भव्य भावना भावशुद्धये । याः सिद्धान्तमहातन्त्रे देवदेवैः प्रतिष्ठिताः ॥ ५ ॥ भाषार्थ - हे भव्य ! तू भावना हैं तिनहि भावनिकी शुद्धता अर्थ मनव संचय करि, चितवनरूप करि. ते भावना कैसी? देवदेव जे तीर्थंकर देव तिनिनै सिद्धान्तके प्रबन्धविषै प्रतिष्ठारूप करी प्रसिद्ध करी ॥ ते भावना कैसी हैं
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
ताश्च संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्वये । आलानिता मनः स्तम्भे मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः ॥ ६ ॥
भाषार्थ - ते भावना कर्मनितैं छूटने के अर्थि जे मुनि, तिननै संवेग कहिये - धर्मसूं अनुराग अर संसारसूं वैराग्य, अर यम कहिये - महात्रतादिरूप चरित्र अर प्रशम कहिये - कषायनिका अभावरूप शान्तभाव इनिकी सिद्धिकेअर्थि अपने चित्तरूपी स्तम्भकै विषै दृढ ठहराई. भावार्थ — इनि विषै चित्त निरन्तर लग्या रहै, अन्यतरफ न जाय ऐसें आलानित करी ||
-
आगे ते भावना कैसी हैं सो कहै हैं,अनित्याद्याः प्रशस्यन्ते द्वादशैता मुमुक्षभिः । या मुक्तिसौधसोपानराजयोऽत्यन्तवन्धुराः ॥ ७॥ भाषार्थ – ते भावना अनित्यकूं आदि देकर द्वादश हैं तिनिकं मोक्षके इच्छुक मुनि हैं ते प्रशंसारूपकार कही हैं कैसी हैं ते! मुक्ति रूपीमहलके चढनेकी अत्यन्त बन्धुरा मर्यादरूप रची हुई पैड़निकी पंक्ति सारिखी है |
---
आगें इनि द्वादश भावनाका न्यारा न्यारा व्याख्यान करें हैं, तहाँ प्रथम ही अनित्य भावनाका व्याख्यान करे हैं, अथ अनित्यानुप्रेक्षा लिख्यते ।
हृषीकार्थसमुप्तने प्रतिक्षणविनश्वरे । सुखे कृत्वा रतिं मूढ ! विनष्टं भुवनत्रयम् ॥ ८ ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषार्टीका सहित भाषार्थ-हे मूढ प्राणी ! ये भुवनत्रयके प्राणी इन्द्रिनिके विषयिनितें उपज्या प्रतिक्षण विनाशीक सुखकेविषै रतिप्रीतिकरि विनाशकू प्राप्तभये सो तू जाणि ॥
भवाब्धिप्रभवाः सर्वे सम्बन्धा विपदास्पदम् । संभवन्ति मनुष्याणां तथान्ते सुष्टुनीरसाः ॥९॥
भाषार्थ-या संसारमें जेते संसाररूप समुद्रते भये मनुष्यनिके सबन्ध हैं ते सर्व आपदाके ठिकाणे हैं. तहां अंतविषै अतिशयकरि नीरस है. यह प्राणी तिनि” प्रीति करै है सुखमानै है सो भ्रम है ॥ वपुर्विद्धि रुजाक्रान्तं जराक्रान्तं च यौवनम् । ऐश्वर्यं च विनाशान्तं मरणान्तं च जीवितम् ॥१०॥
भाषार्थ हे आत्मन् ! शरीरकू तौ तू रोगकरि व्याप्त जाणि अर यौवनकू जराकरि व्याप्त जाणि बहुरि ऐश्वर्यकू विनाशपर्यन्त जाणि बहुरि जीवितकू मरणपर्यन्त जाणि. भावार्थऐसें ए पदार्थ प्रतिपक्षसहित जानने ॥
ये दृष्टिपथमायाताः पदार्थाः पुण्यमूर्तयः । पूर्वाह्ने न च मध्याह्ने ते प्रयान्तीह देहिनाम्॥११॥
भाषार्थ-या संसारविषै जे पुण्यकी मूर्ति भले भले पवित्र पदार्थ प्रभातविष प्राणीनिके दृष्टिगोचर आये थे, ते मध्याह्नकालविप नाहीं देखिये हैं जाते रहे हैं. हे आत्मन् । तू ऐसैं जाणि।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. यजन्मनि सुखं मूढ ! यच्च दुःखं पुरःस्थितम् । तयोदुःख मनन्तं स्यात्तुलायां कल्प्यमानयोः॥ १२ ॥
भाषार्थ-हे मूढप्राणी जो कळू इस संसारमें तेरे मुख आँगैं तिष्टया सुख है, बहुरि जो किछु दुःख हैं तिनि दोउनि... ज्ञानरूप तुलामैं ( तराजूमैं ) चढाय तोलै तौ सुख दुःख अनन्तगुणा होय है यह प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है ॥
आगें भोगनिका निषेध हैभोगा भुजङ्गभोगामाः सद्यः प्राणापहारिणः । सेव्यमानाः प्रजायन्ते संसारे त्रिदशैरपि ॥ १३ ॥
भाषार्थ-या संसारविषै भोग हैं ते सपके फणसारिखे हैं ते देवनिकरि भी सेये हुए तत्काल प्राणनिके हरनेवाले होय हैं. भावार्थ-देव भी भोगनिकू सेवता मरिकरि एकेन्द्रिय उपजै है तौ मनुष्य तो नरकादिकविषै जाय ही जाय।
आगें या प्राणीकी अज्ञानता दिखावै हैंवस्तुजातमिदं मूढ ! प्रतिक्षणविनश्वरम् । जानन्नपि न जानासि ग्रहः कोऽयमनीषधः ॥१४॥
भाषार्थ-हे मूढ प्राणी ! या संसारविषै समस्त वस्तुका समूह है सो पर्यायकरि प्रतिक्षण विनाशीक है. यह प्रत्यक्ष अनुभवमें आवै है ताकू तू जानता संता भी न जाणै है
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द्वादशानुपेक्षा भाषाटीका सहिता.
भूलै है सो यह तेरे कहा आग्रह है ? अथवा तोकूं पिसाच लाग्या है जाकी किछु औषधि नाहीं ऐसा है ॥ आगे अन्यप्रकार कहै हैं -
क्षणिकत्वं वदन्त्यार्या घटीघातेन भूभृताम् । क्रियतामात्मनः श्रेयो गतेऽयं नागमिष्यति ॥ ११ ॥
भाषार्थ - या लोकविषै राजानिकै घड़ावलि ( घंटा ) बाजै है सो क्षणिकपणाकूं कहै है जो हैं " लोक हो ! अपना कल्याणकूं करौ यह घड़ी गयी है सो फेरि न आवैगी " ऐसें घड़ीके घातकरि पुकारै है | आगे फेरि उपदेश करे हैं
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यद्यपूर्व शरीरं स्याद्यदि वात्यन्तशाश्वतम् युज्यते हि तदा कर्तुमस्यार्थे कर्मनिन्दितम् ॥ १६ ॥ भाषार्थ - हे प्राणी जो यह शरीर अपूर्व होय पहिले कदे न पाया होय अथवा अत्यंत शाश्वता है कदे विनरौ नाहीं तौ या शरीरकैअर्थ निन्द्यकर्म भी करबो युक्त है सौ तौ है नाहीं. पहिले अनेकवार शरीर धारे अर विनशे अर अब भी विनशैहीगा तातैं ऐसेकेअर्थि निन्द्यकार्य करना उचित नाहीं, अपना कल्याण होय ऐसा कार्य करना ||
आंगे फेरि इस ही अर्थकों सूचता कहै हैंअवश्यं यान्ति यास्यन्ति पुत्र स्त्रीधनवान्धवाः । शरीराणि तदैतेषां कृते किं खिद्यते वृथा ॥ १७ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
भाषार्थ-या संसारविषै पुत्र स्त्री धन बान्धव सर्व ही कुटंब तथा शरीर ये सर्व ही अवश्य जाते रहै हैं तथा आ. गानै भी जायहींगे तो इनिके कार्यकेअर्थ वृथा क्यों खेद कीजिये ? ऐसा उपदेश है ॥
फेरि कहै हैंनायाता नैव यास्यन्ति केनापि सह योषितः । तथाप्यज्ञाः कृते तासां प्रविशन्ति रसातलम् ॥१८॥
भाषार्थ-या संसारमें स्त्री हैं ते कोईकी साथि परलो. कसू आई नाहीं तथा परलोकमें लार जासी नाहीं तौऊ अज्ञानी लोक हैं ते तिनिके अर्थ निन्धकार्य करि रसातल-- कहिये नरकमें प्रवेश करै है सो यह बडा अज्ञान है ।
आज कहै हैं बन्धुजन ऐसे हैं,ये जाता रिपवः पूर्व जन्मन्यस्मिन्विधेर्वशात् । त एव तव वर्तन्ते बान्धवा बद्धसौहृदः ॥ १९ ॥
भाषार्थ हे आत्मन् ! जे तेरे पूर्वभवविषै वैरी भये थे ते ही कर्मके वशकार या भवविष बांध्या है मित्रपणा जिनिनै ऐसे बान्धव भये हैं. भावार्थ-तू या मति जाणे ए मेरे बान्धव हितू हैं ॥ रिपुत्वेन समापन्नाः प्राक्तनास्तेऽत्र जन्मनि । बान्धवाःक्रोधरुद्धाक्षाः दृश्यन्ते हन्तुमुद्यताः ॥२०॥ १ संग वा पीछे.
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द्वायशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता. ___ भाषार्थ हे आत्मन् ! पूर्व भवविषै जे बांधव थे ते या जन्मविषै वैरीपणा करि प्राप्त भये सन्ते क्रोध करि रुद्ध हैं रुके हैं नत्र जिनिक एसे भयेसन्ते तोडूं हणवकू उद्यमी होय हैं यह प्रत्यक्ष देखिये है ।।
आगें कहै हैं एह प्राणी आन्धेकी ज्यों हैंअङ्गनादिमहापाशैरतिगाढं नियन्त्रिताः। पतन्त्यन्धमहाकूरे भवाख्ये भविनोऽध्वगाः ॥ २१ ॥
भाषार्थ-या संसार विषै जे प्राणी ते ही भये पथिक ( मुसाफिर ) ते स्त्री आदिक कुटुम्बरूपी पासीकरि अतिशय करि गाढे बँधे संसारनामा अन्धकूपविषै आंधेकी ज्यों पड़े हैं। जैसे-आंधा पुरुष गैलै (रस्त ) चालै तब अन्धकूपमें पड़े, तैसें ए प्राणी सूझते भी आंधेकी ज्यों संसारकूपमें पड़े हैं ।
आज फेरि उपदेश करै हैं,पातयन्ति भवावर्ते ये त्वां ते नैव वान्धवाः। बन्धुतां ते करिष्यन्ति हितमुद्दिश्य योगिनः॥२२॥
भाषार्थ--हे आत्मन् ! जे तोकू संसाररूप भवनिविषै पटकै हैं ते तेरे बांधव नाही हैं किन्तु जे हित करें ते बांधव हैं. ऐसे बंधुपणा करनेवाले तेरा हित विचारि करै हैं ते योगीश्वर तेरे बांधव हैं. योगीश्वर प्राणीकू हितका उपदेश देकरि अज्ञान मेटि हितरूप स्वर्गमोक्षका मार्ग बतावै हैं ते सांचे बांधव हैं ॥ २२ ॥
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१०
जैनग्रन्थरत्नाकरे. आगे आचार्य प्राणीनिकों आश्चर्य करि कहै हैं,शरीरं शोर्यते नाशा गलत्यायुर्न पापधोः। मोहः स्फुरति नात्मार्थः पश्य वृत्तं शरीरिणाम्॥२३
भाषार्थ-देखो प्राणीनिका यह प्रवर्तन आश्चर्य रूप है जो शरीर तो नित्य छीजै है अर आशा नाही छीजै है नित्य बधै है. बहुरि आयुर्वलतौ नित्य छीजै है घटै है अर पाप विषै बुद्धि वधै है. बहुरि मोह तौ नित्य स्फुरायमान होय है अर अपना अर्थ कल्याणमें नाहीं प्रवर्ते हैं ऐसा कोई अ. ज्ञानका माहात्म्य है ॥
आगे उपदेश करै हैं,यास्यन्ति निर्दया नूनं यद्दत्वादाहमूर्जितम् । हृदि पुसां कथं ते स्युस्तव प्रीत्यै परिग्रहाः ॥२४॥
भाषार्थ हे आत्मन् ! ए परिग्रह हैं ते जो पुरुषनिके हृदयविषै उत्कृष्ट दाह देकरि निश्चयतै जाते रहै हैं ते परिग्रह तेरे प्रीतिके अर्थ कैसे होय है ? यह विचारि. भावार्थतू वथा प्रीति मति करै ए रहनेके नाहीं ॥ ___ आग अज्ञानके निमित्त नरक आदिका दुःख सहेगा ऐसे
अविद्यारागदुर्वारप्रसरान्धीकृतात्मनाम् । श्वभ्रादौ देहिनां नूनं सोढव्या सुचिरं व्यथा ॥ २५॥
१. घटै है.
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
११
भाषार्थ-~अविद्या कहिये मिथ्याज्ञान तातै भया जो परवस्तु विषै राग, ताका जो दुर्निवार फैलना ताकरि आधे किये जे प्राणी, तिनिकू निश्चयकरि नरक आदिकविषै बहुत कालपर्यन्त व्यथा पीडा सहनी होयगी, ताका प्राणीनिकू चेत ही नाहीं है।
आगैं कहै हैं जो विषयनिविष सुख हेरै (ढूंदै ) है ते कहा करै हैं,
वर्हि विशति शीतार्थ जीवितार्थ पिवेदिषम् । विषयेष्वपि यः सौख्यं अन्वेषयाति मुग्धधीः ॥२६॥
भाषार्थ-जो मूर्खबुद्धि विषयनिविषै सुख हेरै है सो शीतलताके अर्थिं अग्निमें प्रवेश करै है. बहुरि जीवनेके अर्थि विष पीवै है. भावार्थ-इस विपरीतबुद्धि” सुख तौ नाही पावैगा दुःखी ही होयगा ॥ __ आगैं जिनिके अर्थि पाप करै है तिनिकी रीति कहै हैंकृत येषां त्वया कर्म कृतं श्वभ्रादि साधकम् । त्वामेव यान्ति ते पापा वञ्चयित्वा यथायथं ॥ २७॥
भाषार्थ--हे आत्मन् ! जिनि कंटबादिकनिकै अर्थि तू नरकादिकका देनेवाला पापकर्म किया, सो वै पापी तोकू निश्चय ठिगिकरि अपनी अपनी गतिकू चले जाय हैं पापका फल तोहीकू भोगना पड़े है ।
आगें याकू करने योग्य उपदेश करै हैं,--
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
अनेन नृशरीरेण यलोकद्वय शुद्धिदम् । विवेच्य तदनुष्ठेयं हेयं कर्म ततोऽन्यथा ॥ २८ ॥
भाषार्थ - या प्राणीकूं इस मनुष्यशरीरकार जो दोऊं लोकविधै शुद्धताका देनेवाला कार्य विचार कर अर तिसकूं आचरण करना अर तिस विरुद्ध कार्य होय सो छोउना यह सामान्य उपदेश है ||
आगे कहै हैं जे असें न करे हैं ते कहा करे हैं, वर्द्धयन्ति स्वघाताय ते नूनं विषपादपम् । नरत्वेऽपि न कुर्वन्ति ये विवेच्यात्मनेहितम् ॥ २९ ॥
भाषार्थ - - ये पुरुष सर्व विचारविषै समर्थ अर जाका फेरि
पावना दुर्लभ है ऐसा मनुष्यपणा
पायकार भी विचारि करि निश्चयकरि अपने घा
फिर अपना हित नाही करें हैं ते तके अर्थ विषके वृक्षकं बधा है. पापकर्म हैं सो विषका वृक्षवत् है सो याके फल मारनेवाले ही हैं ||
आगें प्राणीनिका उपजना कुलविषै है ताका दृष्टान्त दिखावे हैं, --
यद्वद्देशान्तरादेत्य वसन्ति विहगा नगे । तथा जन्मान्तरान्मूढ ! प्राणिनः कुलपादपे ॥ ३० ॥ भाषार्थ — जैसे पक्षी हैं ते अन्य देशनिमूं आय करि वृक्षविषै बसे हैं तैसें हे मूढ पाणी ! ए प्राणी हैं ते अन्य जन्मसं आय कुलरूपी वृक्षविषै बसें हैं ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
प्रातस्तलं परित्यज्य यथैते यान्ति पत्रिणः । स्वकर्मवशगाः शश्वत्तथैते क्वापि देहिनः ॥ ३१॥
भाषार्थ-बहुरि जैसे प्रभाति ही ते पक्षी तिस वृक्षकू छोडि कार कहूं जाय है तैसे ते प्राणी भी अपने २ कर्मके वशकार निरन्तर कहूं अपनी उपार्जी गतिकू चले जांय हैं । फेरि अन्यरीति कहै हैं--- गीयते यत्र सानन्दं पूर्वाह्ने ललितं गृहे । तस्मिन्नेव हि मध्याह्ने सदुःखमिहरुद्यते ॥ ३२॥
भाषार्थ-जिस घरविषै प्रभाति तौ आनंद सहित सुंदर गीत गाईये हैं तिस ही घरमैं मध्याह्नकालविषै दुःखसहित रोइये हैं. यह इस संसारवि विचित्रता है ॥
फेरि कहै हैं ---- यस्य राज्याभिषेकश्रीः प्रत्यूषेऽत्र विलोक्यते। तस्मिन्नहनि तस्यव चिताधूमश्च दृश्यते ॥ ३३ ॥
भषार्थ-या संसारविषै प्रभाति ही जाकै राज्यके अभिषेककी लक्ष्मी (शोभा) देखिये है तिस ही दिनविषै तिसहीकै रथीकी (चिताकी ) धूवां देखिये हैं. भावार्थ-प्रभाति तौ जाकै राज्याभिषेक होय अर तिस ही दिनविषै सो ही मरणकू प्राप्त होय है यह संसारकी विचित्रता है।। ___ फेरि शरीरकी व्यवस्था कहै हैंअत्र जन्मनि निर्धत्तं यैः शरीरं तवाणुभिः । प्राक्तनान्यत्र तैरेव खण्डितानि सहस्रशः ॥ ३४ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ हे आत्मन् ! या संसारविषै जिन परमाणूनि करि तेरा शरीर रच्या है तिनि ही परमाणूनिकरि इस संसारविषै पहले हजारबार खंड खंड किये हैं. भावार्थपुराणे परमाणु तौ खिरते जांय हैं नवे ग्रहण होते जांय हैं याते ते ही परमाणु तौ शरीरकू रचै हैं अर ते ही विगाड़नेवाले होय हैं. यह शरीरकी दशा है ।। फेरि कहै हैंशरीरत्वं न ये प्राप्ता आहारत्वं न येऽणवः । भ्रमतस्ते चिरं भ्रातर्यन्न ते सन्ति तदहे ॥३५॥
भाषार्थ हे भाई ! तेरै या संसारमैं बहुतकाल भ्रमतेके ने परमाणु शरीरपणाकून प्राप्त भये अर आहारपणाकून प्राप्त भये ऐसे परमाणु तिस शरीरके ग्रहणविषै नाहीं है. भावाथ-या शरीरविषै परमाणूं ऐसे नाहीं हैं जे पूर्व शरीररूप आहाररूपकार से नाहीं ग्रहण किये अर्थात् अनन्त प्रावर्तनमैं कईबार ग्रहणमैं आये हैं ।
आगें ऐश्वर्यआदिकी व्यवस्था दिखावे हैं। सुरोरगनरैश्वर्यं शक्रकार्मुकसन्निभम् ।
सद्यं प्रध्वंसमायाति दृश्यमानमपि स्वयं ॥३६॥
भाषार्थ-या जगत विषै सुर कहिये-देवनिका उरग कहिये भवनवासीनिका नर कहिये-मनुष्यनिका ऐश्वर्य-विभव इन्द्र क्रवर्तिपणा सो इन्द्रधनुषसारिखा है. दीखनेमैं अति
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
सुंदर दीखै अर तत्काल देखतां देखतां आपै आप विलय जाय है. यह ऐश्वर्यकी व्यवस्था है।
फेरि अन्यप्रकार दृष्टान्त कहै हैं-- यान्त्येव न निवर्तन्ते सरितां यद्वदूर्मयः। तथा शरीरिणां पूर्वागता नायान्ति भूतयः ॥३७॥
भाषार्थ-जैसैं नदीनिकी लहरि हैं ते जाय ही हैं उलटी फेरि आवै नाहीं है. तैसैं प्राणीनिके पूर्व विभूति होय हैं ते नष्ट भये पीछे फेरि उल्टी नाही आवै हैं. यह प्राणी हर्ष विषाद वृथा करै है ॥
आगे फेरि याही अर्थकू सूचता कहै हैं,-- क्वचित्सरित्तरङ्गाली गतापि विनिवर्तते । न रूपबललावण्यं सौन्दर्य तु गतं नृणाम् ॥ ३८॥
भाषार्थ-नदीनिकी तरंगनिकी पंक्ति है सो कोई जायगां गई भी उल्टी आवै है अर मनुष्यानके रूप बल लावण्य सुन्दरपणा तौ गया पीछे उलटा बाहुड़े (लोटै) नाहीं है. यह प्राणी वृथा तिनिकी आशा लगाय राखै है ॥
आमैं फेरि आयु अर यौवनकी व्यवस्थाका दृष्टान्त कहै हैं,गलत्येवायुरव्यग्रं हस्तन्यस्ताम्बुवत्क्षणे। नलिनीदलसंक्रान्तं पालेयमिव यौवनम् ॥३९॥
अर्थ- प्राणीनिकै आयुर्वल है सो तौ हाथविषै क्षेप्या जलकी ज्यौं क्षणक्षणमें निरन्तर क्षरै ही है. बहुरि यौवन है
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१६
जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
सो कमलिनीके पत्रदिषै मिल्या जो पाला ताकी ज्यों तत्काल ढलकि जाय है यह प्राणी वृथा स्थिरकी बुद्धि करे है || आंगें मनोज्ञ विषयनिकी व्यवस्थाका दृष्टान्त कहे हैं, - मनोज्ञविषयैः सार्द्धं संयोगाः स्वमसन्निभाः । क्षणादेव क्षयं यान्ति वञ्चनोद्धतबुद्धयः ॥४०॥ भाषार्थ -- प्राणीनिकै मनोहर इन्द्रयनिके विषयनिके साथि संयोग हैं ते स्वप्नके संयोग सारिखें हैं क्षणमात्र में क्षय नाय हैं. कैसे हैं ? ठगनेविषै उद्धत है बुद्धि जिनिकै. जैसें उग कछू तत्काल चमत्कार दिखायदे पीछें सर्वस्व हरै, तैसें हैं. यह प्राणी तिनका विश्वास वृथा करै है ||
फोर अन्य सामग्रीको व्यवस्था कहै हैं
घनमालानुकारीणि कुलानि च बलानि च । राज्यालङ्कारवित्तानि कीर्त्तितानि महर्षिभिः ॥४१॥
भाषार्थ - प्राणीनिकै कुल कुटुंब हैं बहुरि बल सेना हैं ते, बहुरि राज्यके अलंकार छत्र चामर आभूषण वित्तधन सम्पदा हैं ते मेघके बादले निकी पंकति सारिखे हैं, देखते देखते विलय जाय हैं. ऐसें महर्षि जे बडे ऋषीश्वर तिनिकर कहे हैं. यह मूढ प्राणी वृथा नित्यकी वृद्धि करै है ॥
आगे शरीरकूं निःसार कहै हैं
१. ओसकी बूंद .
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
फेनपुञ्जेऽथवारम्भस्तम्भे सारः प्रतीयते । शरीरे न मनुष्याणां दुर्बुद्धे विद्धि वस्तुतः ||४२ ||
१७
.
भाषार्थ - झाग के ( फेनके) पुंजविषै तथा केलिके थंभ विषै तौ कि सार प्रतीतिगोचर होय भी है अर इनि मनुष्यनिके शरीरविषै तौ किंचिन्मात्र भी सार नाहीं देखिये है. दुर्बुद्धि प्राणी तूं परमार्थथकी यहु जाणि भावार्थ - यह दुर्बुद्धि प्राणी मनुष्य के शरीरमें किछू सार जाणै है ताकूं कया है जो यामें किछू भी सार नाहीं है मृतक भये पीछें महम होय है कि भी अवशेष न रहै है यह प्राणी वृथा सारकी बुद्धि करे है |
फेरि कहै हैं,यातायातानि कुर्वन्ति ग्रहचन्द्रार्कतारकाः । ऋतवश्च शरीराणि न हि स्वप्नेऽपि देहिनाम् ||४३|
भाषार्थ – या लोकमें ग्रह चन्द्रमा सूर्य तारा बहुरि छह ऋतुए सारे जांय हैं आ हैं. ऐसे गमनागमन करे हैं. बहुरि प्राणीनिके शरीर हैं ते जे गये ते फेरि स्वप्नेविषै भी उलटे नाहीं आने हैं यह प्राणी वृथा इनिमूं प्रीति करै है | फेरि कहै हैं,
ये जाताः सातरूपेण पुद्गलाः प्राङ्मनः प्रियाः । पश्य पुंसां समापन्ना दुःखरूपेण तेऽधुना ॥ ४४ ॥ भाषार्थ - या जगतविषे जे पुद्गलके स्कंध प्राणीनिके मनके
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१८
द्वायशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. प्यारे सुखके देनेवाले पहिले उपजे थे, ते ही अत्र दुःख देनेवाले होय गये. ऐसें हे आत्मन् तू देखि ! ऐसा कोई नाही है जो शाश्वता सुखरूप ही रहै ।।
अब सामान्यकरि कहै हैं,मोहाञ्जनमिवाक्षाणामिन्द्रजालोपमं जगत् । मुह्यत्यस्मिन्नयं लोको न विद्मः केन हेतुना ॥४५॥
भाषार्थ-यह जगत इन्द्रजाल सारिखा है प्राणीनिके नेत्रनिकू मोहिनी अंजन सारिखा है भुलावै है. और यह लोक है सो याविषै मोहळू प्राप्त होय है भुलै है तहां आचार्य कहै हैं हम नाहीं जानै हैं जो यहां कौन कारणकरि मूलै है. यह प्रबल मोहका ही महात्म्य है ॥
ये चात्र जगतीमध्ये पदार्थाश्चेतनेतराः । ते ते मुनिभिरुद्दिष्टाः प्रतिक्षणविनश्वराः ॥४६॥
भाषार्थ-या जगतविषे जे जे चेतन अर अचेतन पदार्थ हैं ते ते मुनिनिनै क्षणक्षणप्रति बिनाशीक कह हैं । यह प्राणी नित्यरूप मान है सो भ्रम है। ___ अब संक्षेपकार कहै हैं अर अनित्य भावनाके कथनकू संकोचे हैं,गगननगरकल्पं संगमं वल्लभानाम्
जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा । स्वजनसुतशरीरादीनि विद्युबलानि
क्षणिकमिति समस्तं विद्धि संसारवृत्तम् ॥४७॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
भाषार्थ-आचार्य उपदेश करै है जो हे प्राणी या संसारका परिवर्तन स्वरूप है ताहि तू ऐसा क्षणिक जाणि. सो कहा ? सो ही कहै हैं, ये बल्लभा जे प्यारी स्त्रीजन हैं तिनिका संगम तो आकाशविकै मायामयी नगर देवनिकार रच्या होय सो त्वरित विलय जाय तैसा जानि. बहुरि यह तेरै यौवन है तथा धन है सो जलद जो बादल ताका पटल तुल्य जानि, क्षणेकमें विघटि जाय है. बहारे स्वननपरिवारके लोक तथा पुत्र अर शरीर आदिक सर्व ही पदार्थ बीजली सारिखे चंचल जानि, तत्काल चिमककरि विलय जाय हैं. ऐसैं जगतकी व्यवस्था अनित्य जानि, नित्यकी बुद्धि मति कर यह उपदेश है ।।
यहां विशेष इतना और जानना जो यह लोक षद्रव्य म्वरूप है सो द्रव्यदृष्टिकरि देखिये तब तो छहों द्रव्य अपने अपने स्वरूपरूप शाश्वते नित्य विराजै हैं. तथापि इनका पर्याय स्वभाव विभावरूप उपजै विनस है ते अनित्य हैं. तहां या प्राणीकै द्रव्यस्वरूपका तौ ज्ञान नाहीं अर पर्यायहीकू वस्तुस्वरूप मानि तिनिविषै नित्यताकी बुद्धि कार ममत्व राग द्वेष करै है तिस कारणते याकू यह उपदेश है जो पर्याय बुद्धिका एकान्त छोड़ि द्रव्यदृष्टिकरि अपना म्वरूपकू कथंचित् नित्य जानि तिसका ध्यान करि लयकू प्राप्त होय करि वीतरागविज्ञान दशाकों प्राप्त होय. ऐसा आशय जानना । ऐसें अनित्य भावनाका वर्णन किया ।
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जैमप्रन्थरत्नाकरे.
दोहाद्रव्यरूपकरि सर्व थिर, परजय थिर है कौण । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्जयनयकरि गौण ॥ १ ॥
इति अनित्यानुप्रेक्षा ॥१॥
अथ अशरणानुप्रेक्षा लिख्यते । आगें अशरणभावनाका व्याख्यान करै हैं-तहां प्रथम ही कहै हैं जो काल आवै तब कोऊ शरणा नाही,--
न स कोऽप्यस्ति दुर्बद्ध शरीरी भुवनत्रये । यस्य कण्ठे कृतान्तस्य न पाशः प्रसरिष्यति ॥१॥
भाषार्थ हे दुर्वद्धि प्राणी तू शरणा काहूका चाहै है सो या तीन भुवनमें ऐसा कोई प्राणी नाहीं है जाके कंठीवषै कालका पाश नाहीं पड़े है. सर्व प्राणी कालकै वशि है ॥
फेरि विशेष कहै हैं, समापतति दुर्वारे यमकण्ठीरवक्रमे । त्रायते तु न हि प्राणी सोद्योगैस्त्रिदशेरपि ॥ २॥
भाषार्थ-इस दुर्निवार कालरूपी सिंहके चरणनीचे आवते संतै प्राणी कू उद्यमसहित जे देव ते भी नाही राखि । सके हैं. अन्य कौन राखे ।
फेरि विशेष कहै हैं,--- सुरासुरनराहीन्द्रनायकैरपि दुर्द्धरा।
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२१
द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. भाषार्थ---यह कालकी पाश है सो देव दानव मनुष्य धरणीश्वर इनके नायक इन्द्र हैं तिनिकरि भी दुर्द्धर है निवारी न जाय है ऐसी है. जीवनिकुं अधक्षणमात्रमैं बांध ले है याकू कोई निवारि सकै नाही ॥
अब कहै हैं यह काल अद्वितीय सभट है,--- जगत्रयजयी वीर एक एवान्तकः क्षणे। इच्छामात्रेण यस्यैते पतन्ति त्रिदशेश्वरांः ॥ ४ ॥
भाषार्थ-यह काल है सो तीन जगतका जीतनेवाला सुभट है सो अद्वितीय है, जाकी इच्छा मात्रकरि एक क्षणमें ए देवनिके इन्द्र हैं ते भी पड़े हैं च्युत होय हैं तहां अन्यकी कहा कथा ? ॥
आगें कहै हैं जे मृत्यु प्राप्त भयेका शोक करै हैं ते
हैं
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शोच्यन्ते स्वजनं मूर्खाः स्वकर्मफलभोगिनम् । नात्मानं बुद्धिविध्वंसा यमद्रंष्ट्रान्तरस्थितम् ॥५॥
भाषार्थ--चुद्धिका है विध्वंस जिनिकै ऐसे मूर्ख प्राणी हैं ते अपने कर्मका फल भोगनेवाला जो स्वजन कुटुंबका जब आयुकर्म भोगि मरणकू प्राप्त भया ताका शोक करै है अर अपना आत्मा कालकी दाढिके मध्य प्राप्त है ताका शौच नाहीं करै है यह बडी मूर्खता है ॥
फेरि कहै हैं पूर्व बडे बडे पुरुष प्रलय भये हैं,
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. यस्मिन्ससारकान्तारे यमभोगीन्द्रसेविते । पुराणपुरुषाः पूर्व मनन्ताः प्रलयं गताः ॥ ६॥
भाषार्थ-कालम्वरूप सर्पकरि सेवित यह संसार रूपबन है या विषै पहिलें अनन्ता पुराण पुरुष कहिये सलाकापुरुष प्रलयकू प्राप्त भये तिनिकू विचारतें शोक करना वृथा है॥ फेरि कालका प्रबलपणा दिखावै हैं,प्रतीकारशतेनापि त्रिदशैर्न निवार्यते। यत्रायमन्तकः पापी नृकीटैस्तत्र का कथा ॥७॥
भाषार्थ-यहकाल है सो पापस्वरूप है सो जहां देवनिकरि सैंकड़ां इलाजनिकरि भी नाहीं निवास्या जाय है तहां मनुष्य कीड़ेकी कहा कथा है ? काल दुर्निवार है ॥
फेरि कहै हैं,गर्भादारभ्य नीयन्ते प्रतिक्षणमखण्डितैः । प्रयाणैः प्राणिनो मूढ कर्मणा यममन्दिरं ॥ ८॥
भाषार्थ-हे मूह प्राणी ! यह आयुनामा कर्म है ताकार सर्व प्राणी गर्भतें लगाय अर क्षणक्षणप्रति अखंडित निरंतर प्रवाहरूप प्रयाणनिकरि यममन्दिरकू प्राप्त कीजिये हैं तिनकुं देखि ॥
फेरि कहै हैं,यदि दृष्टः श्रुतो वास्ति यमाज्ञावश्चको बली। तमाराध्य भज स्वास्थ्यं नैव चेकिं वृथा श्रमः॥९॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. २३ भाषार्थ-हे प्राणी ! जो कोई बलवान् कालकी आज्ञा लोपनेवालो नै देख्यो होय तथा सुग्यो होय ताकू तू आराध्य अर स्वास्थ्यकू सेय, नम्रीभूत होय तिटि. अर जो ऐसा देख्या सुण्या न होय तो तेरा खेद करना वृथा है ॥
फेरि कहै हैं,-- परस्येव न जानाति विपत्तिं स्वस्य मूढधीः । वने सचसमाकीर्णे दह्यमाने तरुस्थवत् ॥ १० ॥ भाषार्थ-यह मूढबुद्धि पुरुष जैसैं परके जाणै तैसें आपके आपदा मरण है ताकू न जाणै है. इहां दृष्टान्त जैसैं-बहुत जीवनिकरि भस्वा वन दग्ध होता होय तहां वृक्ष उपरि बैठा पुरुष ऐसे देखै ये वनके जीव बलै हैं अर यह न जाणे जो यह वृक्ष बलैगा तब मैं भी या मैं बलूंगा, यह बड़ी मूर्खता है।
फेरि कहै हैं,यथा बालं तथा वृद्धं यथाढयं दुर्विधं तथा। यथा शूरं तथा भीरु साम्येन असतेऽन्तकः ॥११ ।।
भाषार्थ---यह काल है सो जैसैं बालककू ग्रसै है तैसैं ही वृद्धकू ग्रसै है. बहुरि जैसैं धनवानकू ग्रसै है तैसें ही दरिद्र• ग्रसै है. बहुरि जैसे सूरवीरकू ग्रसै है तैसें ही काय रकू ग्रसै है ऐसें सर्वकू समानभावकरि ग्रस है. याकै हीनाधिक कोऊ नाही, याहीत याका नाम समवर्ती क. हिये है ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
अब कहै हैं याकू कोई निवारनेवाला भी नाहीं है, गजाश्वरथसैन्यानि मन्त्रोषधवलानि च । व्यर्थो भवन्ति सर्वाणि विपक्षे देहिनां यमे ॥१२॥
भाषार्थ-इस कालकू प्राणीनिके प्रतिकूल होते हाथी घोडा रथ सेन्या बहुरि मंत्र औषध पराक्रम ए सर्व होय हैं. काल आय पूरा होय तब कोई भी निवारि सकै नाही. यह प्राणी वृथा ही शरण हेरै है ॥
फेरि कहै हैं,--- विक्रमैकरसस्तावज्जनः सर्वोऽपि वल्गति । न शृणोत्यदयं यावत्कृतान्तहरिगर्जितम् ॥१३॥
भावार्थ--यह सर्व ही जन पराक्रमका है अद्वितीय रस जाकै ऐसा उद्धत हुवा तेतै ही दौडै है कूदै है जैतै कालरूपी सिंहकी दयारहित जैसैं होय तैसैं गर्जना नाही सुणै है. काल आया यह शब्द सुणते ही सर्व भूलि जाय है।
फेरि कहै हैंअकृताभीष्टकल्याणमसिद्धारब्धवाञ्छितम् । प्रागेवागत्य निस्त्रंसो हन्ति लोकं यमः क्षणे ॥१४॥ __भावार्थ-यह काल है सो ऐसा निर्दयी है जो नाही किया है अपना बांछित भला कल्याणरूप कार्य जानै अर नाहीं पूर्ण भया है आरंभ्या कार्य जाकै ऐसा लोककू पहिले ही आयकरि क्षणमात्रमैं हणै . लोकके कार्य जसक तैसैं रहि जाय हैं बीचि ही मरण होय जाय है ।
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
फेरि प्राणीनिके अज्ञानकूं दिखावै हैं,
स्नग्धराछन्दः ।
भ्रूभङ्गारम्भभीतं स्खलति जगदिदं ब्रह्मलोकावसानं सद्ययन्ति शैलाश्चरणगुरुभराक्रान्तधात्रविशेन । येषां तेऽपि प्रवीराः कतिपयदिवसैः कालराजेन सर्वे नीता वार्ताविशेषं तदपि हतधियां जीवितेऽप्युद्धताशा
॥ १५ ॥
२५
भाषार्थ - जिसकाल रूपी राजाकार ऐसे सुभट भी केतेक दिननिकरि सर्व वार्ताविशेष कहिये जिनकी वार्त्ता मात्र ही सुणिये हैं अन्य किछू भी न रह्या तो हू हीनबुद्धि प्राणीनिके जीवनेविषै बडी आशा वर्ते है, यह बडी भूलि है. ते सुभट कैसे थे जिनकी के भंगके आरंभमात्रकार भयरूप भया यह जगत ब्रह्मलोकपर्यन्त चलायमान होय जाय. बहुरि जिनके चरणके बडे भारकरि दुबी जो पृथ्वी ताके वशकार पर्वत खंड खंड तत्काल होय जाय ऐसे सुभट भी कालने खाये तो अन्यके जीवनेमें कहा आशा ?
शार्दूलविक्रीडितम् ।
रुद्राशागजदेवदैत्यखचरग्राहग्रहव्यन्तरा दिक्पालाः प्रतिशत्रवो हरिबला व्यालेन्द्रचक्रेश्वराः । ये चान्ये मरुदर्यमादिबलिनः संभूय सर्वे स्वयम् नारब्धं यमकिङ्करैः क्षणमपि त्रातुं क्षमा देहिनः ॥ १६ ॥ भाषार्थ - रुद्र दिग्गज देव दैत्य विद्याधर जलदेवता ग्रह व्यन्तर दिक्पाल प्रतिनारायण नारायण बलभद्र धरणीन्द्र
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२६
जैनग्रन्थरत्नाकरे. चक्रवर्ति ए सर्व भर अन्य भी पवन देव सूर्यकों आदिदे बलवान सारे देहधारी भाय भेले होयकरि कालके किंकर जे कालकी कला तिनिकरि आरंभ्या पकड्या जो प्राणी ताकू राखवे• क्षणमात्र भी समर्थ नाहीं है. भावार्थकोई जानैगा कि मरण राखनेवाला जगतमें कोई तो होयगा सो यह विचार मिथ्या है याः राखनेवाला कोई भी नाहीं है ॥ फेरि उपदेश दे हैं,आरब्धा मृगवालिकेव विपिने संहारदन्तिद्विषा पुंसां जीवकलानिरेति पवनव्याजेन भीतासती । त्रातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां बराकीमिमां न त्वं निघृण लज्जसेऽत्र जनने भोगेषु रन्तुंसदा॥१७॥
भाषार्थ-हे मूढप्राणी ! जैसे उद्यान-वनविष मृगकी बचडीकू ( बालहिरणीकू ) सिंह पकड़नेका आरंभ करै है तब वह भयकार भागै, तैसे प्राणीनिके जीवनकी कला कालरूप सिंह भयवान् भई उच्छासके मिसकार बाहिर निकस है. वह मृगकी बचडी सिंहके पगतलै आय जाय तैसें यह पुरुषनिके जीवनकी कला कालके अनुक्रमकार अंतकुं प्राप्त भई सो तू इस निर्बलकू राखनेकू नाही समर्थ है. अर हे निर्दयी तू या जगतविषै भोगनिविषै रमनेर्ले उद्यमी होय प्रवर्ते है अर लज्जायमान न होय है सो यह बडा निर्दयीपणा है सत्पुरुष करुणावाननिकी यह प्रवृत्ति होय है जो काहू असमर्थकू समर्थ
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
दबावै तब सर्व अपना काम छोडि ताकी सहायका विचार करै सो यह प्राणी कालकरि हणते प्राणीनिकू देखिकर भी भोगनिमैं रमै है सो यह निर्दयी है अर निर्लज्ज है ॥
स्नग्धरा छन्द । पाताले ब्रह्मलोके सुरपतिभवने सागरान्ते वनान्ते दिक्चक्रे शैलशृङ्गे दहनवनहिमध्वान्तवज्रासि दुर्गे। भूगर्भे सन्निविष्टं समदकरिघटा संकटे वा बलीयान् कालोऽयं क्रूरकर्मा कवलयति बलाज्जीवितं देहभाजाम्
भाषार्थ—यह काल है सो क्रूरकर्मा है दुष्ट है अर ब. लवान है दुर्निवार है सो प्राणीनिका जीवित है ताहि जबरीतें ग्रासीभूत करै है. पातालविषै ब्रह्मलोकविषै इन्द्रके भवनविषै समुद्र के अन्तविषै बनके अन्तविषै दिशानिके समूहविषै पर्वतके शिखरविषै, अग्निविषै जलविषै पालाविषै अन्धकारविषै वज्रमयी स्थानविषै षड्नके निवासविषै गढकोटविषै भूमिके गर्भविषै मदसहित हस्तीनिकी घटाका संघट्टविषै इत्यादि स्थाननिविषै नीक ( भले प्रकार ) यत्नसे बेठे हुयेकू भी ग्रासित करै है. या काल आज कहूं ही बचे नाहीं ॥ ___ अब अशरण भावनाका वर्णन पूरा करै हैं तहां संक्षेपकार कहै हैं,
. शार्दूलविक्रीडित छन्दः । अस्मिन्नन्तकभोगिवऋविवरे संहारदंष्ट्राङ्किते संसुप्तं भुवनत्रयं स्मरगरव्यापारमुग्धीकृतम् । १ हिम.
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*૮
जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
प्रत्येकं गिलतोऽस्यनिर्दयवियः केनाप्युपायेन वै नास्मान्निःसरणं तवार्य कथमप्यत्यक्षवोधं विना ॥ १९ ॥ भाषार्थ हे आर्य सत्पुरुष ! इस कालरूपी सर्पके मुखदि विषै तीन भुवनके प्राणी निःशंक सोवै है कैसा है कालसर्पकामुख ? अन्त समय रूप दाढकरि चिह्नित है- युक्त है. बहुरि कैसा है ? भुवनत्रयका प्राणी कामरूप जहरका व्यापार फैलना ताकार मूर्ख मोहरूप होय निःशंक सोवै है. तहां न्यारे न्यारे प्राणीनिकूं गिलता जो यह निर्दयबुद्धिकाल ताके इस मुखतैं तेरै निकसना प्रत्यक्ष ज्ञान विना अन्य कोई ही उपाय कार्र तथा कोई ही प्रकारकार नाहीं है. निज ज्ञान स्वरूपका श रणालियां ही बचना है ऐसे अशरणभावनाका वर्णन किया.
याका संक्षेप ऐसा जो निश्चयकार तौ सर्व द्रव्य अपनी अपनी शक्तिके भोगनेवाले हैं कोऊ काहूका कर्त्ता हत्ती नाहीं । अर व्यवहारकारे निमित्तनैमित्तिकभाव देखि यह जीव परकूं शरणा कल्पै है सो यह मोहकर्म करके उदयका माहात्म्य है तातैं निश्चय विचारिये तत्र तौ अपना आत्माहीका शरण है अर व्यवहारिकार जे बीतराग भये ऐसे पंच परमेष्ठी तिनिका शरण है. ते वीतरागता के कारण हैं तातै अन्य सर्वका शरण छोडि ये दोय शरणा विचारणा । सोरठा
जगमें शरणा दोय, शुद्धातम अर पंचगुरु । आन कल्पना होय, मोहउदय जियके वृथा ॥ २ ॥ इति अशरणानुप्रेक्षा ॥ २ ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
अथ संसारानुप्रेक्षालिख्यते। आगें संसारभावनाका व्याख्यान करै हैंचतुर्गतिमहावर्ते दुःखवाडवदीपिते । भ्रमन्ति भविनोऽजस्रं वराका जन्मसागरे ॥१॥
भाषार्थ-या संसाररूप समुद्रमें प्राणी हैं ते निरन्तर भ्रमै हैं कैसा है संसारसमुद्र ? चारिगतिरूप है महा आवर्त कहिये भ्रमण जामें, बहुरि कैसा है ? दुःखरूप बडवानलकार प्रज्वलित है. बहुरि प्राणी कैसे हैं ? बराक हैं, दीन हैं, अनाथ हैं सहायकरि रहित हैं।
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते स्वकर्मनिगडैर्वृताः। स्थिरेतरशरीरेषु संचरन्तः शरीरणः ॥ २॥
भाषार्थ—ए प्राणी अपने कर्मरूप बेडीकार युक्त भये स्थावर त्रस शरीरनिविषै संचरते उपजै हैं अर मरै हैं ।
कदाचिदेवगत्यायुर्नामकर्मोदयादिह । प्रभवन्त्यङ्गिनः स्वर्गे पुण्यप्राग्भारसंभृताः ॥ ३ ॥ भाषार्थ-कदाचित् तौ देवगति नामकर्म अर देवायुकर्मके उदयकार इस संसारविषै ए प्राणी पुण्यकर्मके भारकरि भरे स्वर्गविषै उपज हैं. तहां देवनिके सुखकू पावै हैं ॥
कल्पेषु च विमानेषु निकायष्वितरेषु च । निर्विशन्ति सुखं दिव्यमासाद्य त्रिदिवश्रियम्॥४॥ भाषार्थ-तहां देवगतिविषै कल्पवासीनिके विमाननिविषै
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३०
जैनमन्थरत्नाकरे.
बहुरि इतरनिकाय जे भवनवासी, ज्योतिषी व्यन्तर देवनिविषै देवनिकी लक्ष्मीकूं पाय देवोपनीत सुखकं भोगवै है |
प्रच्यवन्ते ततः सद्यः प्रविशन्ति रसातलम् | भ्रमन्त्यनिलवद्विश्वं पतन्ति नरकोदरे ॥ ५ ॥ भाषार्थ - बहुरि तिस स्वर्गतैं च्युत होय है अर तत्काल पृथ्वी तलें आवै है. तहां पवनकी ज्यों जगतमें भ्रम हैं बहुरि नरक में प्रवेश करे हैं |
विडम्बयत्यसौ हन्त संसारसमयान्तरे । अधमोत्तमपर्यायैर्नियोज्य प्राणिनाङ्गणम् || ६ ||
भाषार्थ – आचार्य खेदकार कहै है जो अहो ! देखो । यह संसार है सो प्राणीनिके समूहकूं समयान्तरविषै नीची ऊंची पर्याय कार जोडि विडंबनारूप करे है. जीवके स्वरूपको अनेकप्रकार विगा है. ॥
स्वर्गी पतति सान्दं श्वा स्वर्गमधिरोहति । श्रोत्रियः सारमेयः स्यात् कृमिर्वा स्वपचोऽपि वा ॥ ॥ ७ ॥
भाषार्थ – अहो देखो ! स्वर्गका देव है सो तौ आक्रन्द सहित रोवता पुकारता स्वर्गतैं नीचें पड़े है. बहुरि स्वान -कूकरा है सो स्वर्ग में जाय देव होय है. बहुरि श्रोत्रिय कहिये क्रियाकाण्डका अधिकारी अस्पर्श रहनेवाला ब्राह्मण है सां स्वान -(कूकरा ) होय है. अथवा लट होय है अथवा चांडाळ होय है यह संसारकी विटंबना है ।
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
रूपाण्येकानि गृह्णाति त्यजत्यन्यानि सन्ततम् । यथा रङ्गेऽत्र शैलूषस्तथायं यन्त्रवाहकः ॥८॥
भाषार्थ-यह यन्त्रबाहक कहिये प्राणी है सो संसारविधै कई एक रूपकू तो ग्रहण करै है अर कई अन्यकू छोडै है ऐसे निरन्तर अन्य अन्य स्वांग धारै है. जैसैं नृत्यके अखामैं नाचनेवाला स्वांग धारै है तैसैं। या प्रकार संसारकी रीति है ॥
सुतीवासातसन्तप्ताः मिथ्यात्वातङ्कतर्किताः । पञ्चधा परिवर्तन्ते प्राणिनो जन्मदुर्गमे ॥९॥ भाषार्थ-या संसाररूप दुर्गम वनविषै प्राणी हैं ते मिथ्यात्वरूप आतंक दाहरोगकरि शंकित अतिशयरूप तीव्र असाता दुःखकरि अत्यन्त तप्तायमानभये पंचप्रकार परिवर्तनकरि भ्रमै हैं. अनेकबार अन्य अन्य पर्याय धारै हैं॥
आगे तिनि पंचप्रकारनिकू कहै हैं,द्रव्यक्षेत्र तथा कालभवभावविकल्पतः। संसारो दुःखसंकीर्णः पञ्चधेति प्रपञ्चितः॥१०॥
भाषार्थ-द्रव्य क्षेत्र तथा काल भव भावके भेदते यह संसार है सो पंचप्रकार विस्ताररूप कह्या है, सो कैसा है? दुःखनिकार व्याप्त है इनि पंचप्रकार परिवर्जनका स्वरूप विस्तारतै अन्यशास्त्रनितें जानना ॥
फेरि कहै हैं.
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३२
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
सर्वैः सर्वेऽपि संबन्धाः संप्राप्तादेहधारिभिः । अनादिकालसम्भ्रान्तैस्त्रसस्थावरयोनिषु ॥ ११ ॥ भावार्थ- — या संसारविषै देहधाराविषै जेते परस्पर संबंध हैं ते ते सर्व ही पाये हैं. पिता माता पुत्र स्त्री भाई इत्यादि संबंध हैं तनिक अनंतबार पाये ऐसा न रह्या है जो न पाया ॥
देवलोके नृलोके च तिरश्चि नरकेऽपि च । न सा योनिर्न तद्रूपं न तद्देशो न तत्कुलं ॥ १२ ॥ न त दुःखं सुखं किंचिन्नपर्यायः स विद्यते । यत्रेते प्राणिनः शश्वत् यातायातैर्न खण्डिताः॥ १३ भाषार्थ - या संसारविषै देवलोकविषै, बहुरि मनुष्य लोकविषै, बहुरि तिर्यञ्च बहुरि नरकविषै सो गोनि नाहीं,
सो रूप नाहीं, सो देश नाहीं, सो कुल नाही, सो दुःख नाही. बहुरि सो सुख किछू नाहीं सो पर्याय नाहीं नहाँ ए प्राणी निरंतर गमन आगमनकार भेदरूप नाही भये हैं. भावार्थ- सर्व ही अवस्था अनेकवार भोग है विना भोग्या किंछू भी नाहीं है ॥
न के बन्धुत्वमायाताः न के जातास्तव द्विषः । दुरन्तागाधसंसारपङ्कमग्नस्य नियम् ॥ १४ ॥ भाषार्थ हे प्राणी ! या संसाररूपदुरंत अथाह कर्दमविषै डूब रह्या जो तू तहां कोई रक्षक नाही ऐसे निर्दय जैसे होय तैसें तेरा बंधु पणाकूं कौन नाहीं प्राप्त भये ? सर्व ही हितू भये बहुरि शत्रु कौन २ न भये ? सर्वही भये. यह मति जाने जो शत्रुत्रपणा किछू और होना रह्या है ||
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
भूपः कृमिर्भवत्यत्र कृमिश्चामरनायकः । शरीरी परिवर्त्तत कर्मणा वञ्चितो बलात् ॥ १५ ॥ भाषार्थ - या संसारविषै प्राणी कर्मकार ठग्या वश हुवा राजा तौ मरि लट होय है अर लट मरिकार अनुक्रमतैं परंपरा देवनिका इन्द्र होय जाय है. ऐसे पलटिबो करै है . किल्लू नियामक नहीं है ॥ १९ ॥
३३
माता पुत्री स्वसा भार्या सैवसम्पद्यतेऽङ्गिजा । पिता पुत्रः पुनः सोऽपि लभते पौत्रिकं पदम् ॥१६॥
भाषार्थ - या संसार विषै प्राणीकी माता तौ मरिकार पुत्री हो जाय है अर वहण मरिकरि स्त्री होय जाय है. बहुर सो स्त्री ही मरिकार आपके पुत्री होय जाय है. बहुरि पिता तै मरिकरि आपके पुत्र होय जाय है अर फेरि सो ही मरि पुत्रकै पुत्र हो जाय है. ऐसें पलाटे २ हूवा करै है ||
अब संसारभावनाकं पूर्ण करे हैं तहां सामान्यकरि कहै
हैं,
शार्दूलविक्रीडितछन्द | श्वभ्रे शूलकुठारयन्त्रदहनक्षारक्षुरव्याहतैस् तिर्यक्षु श्रमदुःखपावकशिखासंभारभस्मीकृतैः । मानुष्येऽप्यतुलप्रयासवशगैर्देवेषु रागोद्धतेः
संसारेऽत्र दुरन्तदुर्गतिमये भ्रभ्यते प्राणिभिः || १७ भाषार्थ- - या दुर्निवार दुर्गातिमयी संसारविषै प्राणीनिकार भ्रमिये हैं. कैसे हैं प्राणी ! नरकविषै तौ शूली कुहाड़े घाणी
?
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३४
जैन प्रन्थरत्नाकरे.
अग्नि क्षारेजलादिक क्षुर- छुरा आदिकनिकार पीड़े घाते हुये दुःख भोगवै हैं . बहुरि कैसे हैं ? तिर्यंचनिविषै खेद दुःख अग्निकी शिखाका भारकारे भस्मरूप किये हुये पीड़ा पावै हैं. बहुरि मनुष्यनिधि भी अतुल्य खेदके वश भये दुःख भोगवै हैं. बहारे देवनिविषै रागकरि उद्धत भये पीड़ा पावै हैं ऐसें च्यारों ही गतिमैं दुःखही पावै हैं. संसारमें कहूं सुख है नाहीं ऐसें संसार भावनाका वर्णन किया ||
तौ
याका संक्षेप ऐसा जो संसारका कारण अज्ञानभाव है ताकर परद्रव्यनिविषै मोहरागद्वेषप्रवर्त्ती है. ताकार कर्मबन्ध होय है. ताका फल यह च्यारि गतिनिका भ्रमण है सो कार्य है सो कारण कार्य दोऊंकूं संसार कहिये । इहां कार्यरूपसंसारका वर्णन विशेषकार किया है जातैं व्यवहारी प्राणी के कर्यसंसारका अनुभव विशेषकार है. परमार्थतें अज्ञानभाव ही
संसार है ।
दोहा
परद्रव्यन्तै प्रीति जो, है संसार अवोध । ताको फल गति च्यारि में भ्रमण को
2
इतिसंसारानुप्रेक्षा ॥३॥
शोध ॥ ३ ॥
अथ एकत्वानुप्रेक्षा लिख्यते ।
आगे एकत्वभावनाका व्याख्यान करे हैं तहां कहै हैं
जो यह आत्मा सर्व अवस्थारूप एक ही होय है,
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
महाव्यसनसंकीर्णे दुःख जूलनदीपिते । एकाक्येव भ्रमत्यात्मा दुर्गे भवमरुस्थले ॥ १ ॥ भाषार्थ -- यह आत्मा बडे कष्ट आपदा करिव्याप्त अर दुःखरूप अग्निकारे प्रज्वलित ऐसा अर दुर्गम- जामैं गमन बडे दुःख होय ऐसा संसाररूप मरुस्थल ताविषै एकाकी जाका दूना कोई सहाई नाहीं ऐसैं भ्रमै है ।
स्वयं स्वकर्मनिर्वृत्तं फलं भोक्तुं शुभाशुभम् । शरीरान्तरमादत्ते एकः सर्वत्र सर्वथा ॥ २ ॥
३५
भाषार्थ – या संसार में यह आत्मा आप ही अपने कर्म कारे निपजाया जो शुभ तथा अशुभ फल ताके भोगनेंकू सर्व जायगाँ सर्व प्रकार कार एकला एक शरीर अन्य शरीरकूं ग्रहण करे है. दूजा कोई नहीं है ॥ २ ॥
संकल्पानन्तरोत्पन्नं दिव्यं स्वर्गसुखामृतम् । निर्विशन्त्ययमेकाकी स्वर्ग श्रीरञ्जिताशयः ॥ ३ ॥
भाषार्थ - बहुरि यह आत्मा एकाकी ही स्वर्गकी लक्ष्मी कार रंजायमान भया संता संकल्पमात्र चितवनमात्रकारि उपज्या देवोपनीत स्वर्गका सुखरूप भमृतकुं भोगवै है तहां भी दूजा नाहीं है ।
संयोगे विप्रयोगे च संभवे मरणेऽथवा । सुखदुःखविधौ वास्य न सरखान्योऽस्ति देहिनः ॥ ४ ॥ भाषार्थ - या प्राणीकै संयोगविषै तथा वियोगाविषै बहुरि
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. जन्मविषै तथा मरणविषै बहुरि सुखदुःखकी विधिविषै अन्य-दूजा साथी नाहीं एकाकी ही भोगवै है । मित्रपुत्रकलत्रादिकृते कर्म करोत्ययम् । यत्तस्य फलमेकाकी भुङ्क्ते श्वभ्रादिषु स्वयम् ॥५॥
भाषार्थ-यह प्राणी मित्र पुत्र स्त्री आदिके कार्यकेअर्थि जो किछु बुरेभले कार्य करै है ताका फल नरक आदि गति विषै एकाकी आप ही भोगवै है. दूजा कोई बटावै नाहीं है।।
सहाया अस्य जायन्ते भोक्तुं वित्तानि केवलम् । नतु सोढुं स्वकर्मोत्था निर्दयां व्यसनावलीम् ॥६॥
भाषार्थ-यह प्राणी बुरे भले कार्यकार धन उपार्जे है ताके भोगनेकू तो याके साथी पुत्रमित्रादिक सर्वही होय हैं अर आप बुरे भले कर्म किये ताकार उपजी, जाको कोउ मटनेवाला वा रक्षक नाही ऐसी नरकादिककी तथा वर्तमानकी वेदना-पीडा ताकी पंक्ति, ताकू सहनेकू साथी कोई भी न होय है आप अकेला ही भोगवै है ॥ एकत्वं किं न पश्यन्ति जडा जन्मग्रहार्दिताः यज्जन्ममृत्युसम्पाते प्रत्यक्षमनुभूयते ॥ १४ ॥
भाषार्थ-आचार्य कहै है जो ए प्राणी संसाररूप पिशाच कार पीड़े हुये भी अपना एकपणाकू क्यों नाही देने है जो इस जन्म अर मरणके संपातविषै प्रत्यक्ष भोगिये है. आप
१ प्राप्तहोनेपर.
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ३७ प्रत्यक्ष जन्ममरण देखे है जो जन्मै है सो ही मरै है दूना कोई नाही, तौऊ अपना एकपणा नाहीं देखे है सो यहु
बडा अज्ञान है॥
अज्ञातस्वस्वरूपोऽयं लुप्तबोधादिलोचनः । भ्रमत्यविरतं जीव एकाकी विधिवञ्चितः ॥ ८॥
भाषार्थ—एकपणा अपना न देखणैविषै कारण यह है जो यह प्राणी नाही जान्या है अपना स्वरूप जानै लुप्त भये हैं ज्ञानादि लोचन जाके ऐसा भया सन्ता कर्म करि ठग्या एकाकी संसार में निरन्तर भ्रमै है. तहां अज्ञान ही कारण भया ॥ यदैक्यं मनुते मोहादयमथुः स्थिरतरैः। तदा स्खं स्वेन बध्नाति तद्विपक्षैः शिवी भवेत् ॥९॥
भाषार्थ——यह मूढ प्राणी जिसकाल थिर अथिर पदार्थनिकरि मोहथकी अज्ञानथकी आपके एकपणा मानै है तिसकाल आप अपने आपाकू अपने ही भावनिकरि बांधे है. अर्थात् कर्मबंधकू करै है. अर जो अन्यतैं एक पणाकू नाहीं मानैं है सो बंध नाहीं करै है मोक्षस्वरूप होय है कर्मनिकी निर्जरा करै है. यह एकत्व भावनाका फल है ।।
एकाकित्वं प्रपन्नोऽस्मि यदाहं वीतविभ्रमः । तदैव जन्मसंबन्धः स्वयमेव विशीर्यते ॥१०॥
भाषार्थ-एकत्व भावनाकरि वीत्या है विभ्रम नाका ऐसा भया सन्ता जिसकाल ऐसी भावना करै नो ,मै
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
३८
एकाकी पणाकूं प्राप्त हौं तिसही काल संसारका संबन्ध है सो स्वयमेव ही विशीर्ण होय जाय है छूटि जाय
11
संसारका संबन्ध तो मोहतें है जब मोह जाता रहै तब आप एक है ही मोक्षकूं ही पावै ॥
अब एकत्वभावनाका वर्णन पूरा करे हैं सो सामान्यकरि कहै, हैं
मन्दाक्रान्ता छन्दः ।
एक: स्वर्गी भवति विबुधः स्त्रीमुखाम्भोजमङ्गः एकः श्वाभ्रं पिबति कलिलं छिद्यमानः कृपाणैः । एकः क्रोधाद्यनलकलितःकर्म बनात्यविद्वान् एक: सर्वावरणविगमे ज्ञानराज्यं भुनक्ति ॥ ११॥ अर्थ - यह आत्मा एकही आप देवांगना के मुखरूप - कमलनिका सुगन्ध लेनेवाला भ्रमरसारिखा देव भयासंता स्वगविषै जाय उपजै है . बहुरि एक ही आप कृपाण कहिये छुरी तरवार निकरि छेद्या विदारया नरकसम्बन्धी रुधिरकूं पी हैं . बहुरि एकही आप मूर्ख होकर क्रोधादि कषायरूप अग्निकरि ससहित हूवा कर्मनिकूं बांधै है. बहुरि एकही आप पंडित भया सन्ता सर्वकर्म आवरणका अभाव होतैसन्तै ज्ञानरूप राज्यकूं भोगवै है. भावार्थ आत्मा आपही एक स्वर्ग जाय है आपही नरक जाय है आप कर्म बांधे है आपही केवलज्ञानपाय मोक्ष जाय है. यह एकत्वभावनाका संक्षेप हैं.
१ नष्ट.
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
परमार्थकरि तौ आत्मा अनन्त ज्ञानादि स्वरूप आप एक हैं
70
The
अर संसार में अनेक अवस्था होय हैं ते कर्मके निमित्ततें है तहां भी आप तो एक ही है दूजा तो कोई साथी है नाही ऐसें एकत्वभावनाका वर्णन किया ॥ ४ ॥
दोहा.
परमारथ आतमा, एकरूप ही जोय । कर्मनिमिति विकलप घने, तिनि नाशे शिव होय ॥४॥ इति एकत्वानुप्रेक्षा ॥ ४ ॥
अथ अन्यत्वानुप्रेक्षा लिख्यते. आगैं अन्यत्वभावनाका व्याख्यान करे हैं तहां शरीरादि बाह्यवस्तूनितैं आत्माकं परमार्थतें न्यारा दिखावे हैं. -
अयमात्मा स्वभावेन शरीरादेर्विलक्षणः । चिदानन्दमयः शुद्धो बन्धः प्रत्येकवानपि ॥ १ ॥
अर्थ - यह आत्मा कर्मबन्धकी दृष्टिकरि देखिये तब बन्ध अर आप एकरूप है तौऊ अपने स्वभावकी दृष्टि देखिये तत्र शरीरादिकर्ते विलक्षण चैतन्य अर आनंदमयी शुद्ध परद्रव्यनित अन्य है.
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अचिच्चिद्रूपयोरैक्यं बन्धप्रति न वस्तुतः । अनादिश्वानयोः श्लेषः स्वर्णकालिकयोरिव ॥ २ ॥ अर्थ — अचेतनकै अर चेतनकै बन्धदृष्टिकरि एकपणा है अर वस्तुतैं देखिये तब दोऊं न्यारे न्यारे वस्तु हैं एकपणा
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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
नाही है दोऊनिका अनादिकालमें एकक्षेत्रावगाहरूप संश्लेष है मिलाप है जैसैं सुवर्णकै अर कालिमाकै खानित लगाय एकपणा है तैसें एकपणा है वस्तु न्यारे न्यारे हैं तैसें जानू॥
इहमूर्तममूर्तेन चलेनात्यन्तनिश्चलं ।
शरीरमुह्यते मोहाचेतनेनास्तचेतनम् ॥ ३ ॥ अर्थ-इस जगतमैं मूर्तीक अर अति निश्चल अर चे. तनारहित जड़ जो यह शरीर सो अमूर्तीक अर चलनेवाला चेतन जो जीव ताकरि मोह वाहिये है चलाइये है. भावार्थ-जीवअमूर्तीक चेतन है अर मोहनै इच्छाकरि चलनेका स्वभावयुक्त है. अर शरीर मूर्तीक है अचेतन है चालनेकी इच्छारहित है ताते चल नाहीं है, ताईं जीव लियां फिरै है जैसैं मुरदाकू जीवता पुरुष लियां फिर तैसैं लियां फिरै है तहां यह जीवकै अज्ञान है ॥
अणुप्रचयनिष्पन्नं शरीरमिद मङ्गिनाम् ।
उपयोगात्मकोऽत्यक्षः शरीरी ज्ञानविग्रहः॥४॥ अर्थ-प्राणीनिकै यह शरीर है सो तो पुद्गल परमाणूनका समूहकरि निपज्या है. बहुरि यह शरीरी आत्मा है सो उपयोगस्वरूप है सो अतीन्द्रिय है इन्द्रियगोचर नाही. कैसा है ? ज्ञानही है शरीर नाकै ऐसैं शरीर अर आत्मा अन्य अन्य है इनिकै अत्यन्त भेद है ॥
अन्यत्वं किं न पश्यन्ति जडा जन्मग्रहार्दिताः। यज्जन्ममृत्युसंपाते सर्वेणापि प्रतीयते ॥ ५ ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाठीकासहिता.
૪૧
अर्थ - ऐसे पूर्वोक्त प्रकार शरीर अर जीवकै अन्यपणा है ताकूं ए संसाररूप पिशाचकरि पीडे मूर्ख प्राणी क्यों नाही देखै है ? जो यह अन्यपणा जन्म अर मरणकार संपातविषै सर्वलोककै प्रतीतिमैं आवै है . जन्म्या तब शरीरकूं लोर ल्याया नाही मस्या तब लार ले गया नाहीं ऐसें शरीरतें जीवकै अन्यपणा प्रतीतिसिद्ध है ॥
मूतैर्विचेतनैश्वित्रैः स्वतन्त्रैः परमाणुभिः । यद्वपुर्विहितं तेन कः संबन्धस्तदात्मनः ॥ ६ ॥
भाषार्थ — मूर्तीक अर चेतनारहित अर अनेकप्रकार के पुद्गल परमाणुनिने स्वतंत्र होयकरि जो शरीर रच्या तौ तिस शरीरकरि आत्माकै कहा सम्बन्ध होय सो विचारो ! तहाँ विचार किये किछू भी सम्बन्ध नाहीं ॥
ऐसें शरीरतें अन्यपणा दिखाया तैसे ही अन्य वस्तु करि अन्यपणा दिखाने हैं, -
अन्यत्वमेव देहेन स्यादभृशं यत्र देहिनः । तत्रैक्यं वन्धुभिः सार्द्ध बाहिरङ्गैः कुतो भवेत् ||७||
भाषार्थ – ऐसें पूर्वोक्त प्रकार जहां देहकरि सहित ही
-
प्राणी के अत्यन्त अन्यपणा है तौ बहिरंग जे बन्धु भाई कुटुंबादिक तिनिकरि सहित एकपणा काहतें होय ? ते तौ प्रत्यक्ष अन्य हैं ही ||
लार - पीछें व साथ ।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. ये ये सम्बन्धमायाताः पदार्थाश्चेतनेतराः । ते ते सर्वेजप सर्वत्र स्वस्वरूपाद्विलक्षणः ॥८॥ भाषार्थ-या जगतमें जे जे चेतन अर जड़ पदार्थ या प्राणीकै सम्बंधस्वरूप भये, ते ते सर्व ही सर्व जांयगां अपने स्वरूपसू विलक्षण हैं आप आत्मा सर्वते अन्य है। पुत्रमित्रकलत्राणि वस्तूनि च धनानि च । सर्वथान्यस्वभावानि भावयत्वं प्रतिक्षणं ॥९॥
भाषार्थ-हे आत्मन् ! या जगत्में पुत्र मित्र स्त्री अन्य वस्तु तथा धन तिनिळू तू सर्वप्रकारकरि अन्यस्व. भाव निरन्तर भाय, इनिविषै एकपणाकी भावना कब हू मति करै ऐसा उपदेश है ॥
अन्यः कश्चिद्भवत्पुत्रः पितान्यः कोऽपि जायते । अन्येन केनचित्साई कलत्रेणानुयुज्यते ॥१०॥
भाषार्थ---या जगतमें कोई और ही तौ पुत्र होय है. बहुरि कोई और ही पिता उपजै है. बहुरि अन्य कोई करि सहित स्त्रीका सम्बंध होय है. ऐसें सर्व ही अन्य अन्य संबंध होय हैं ॥
त्वत्स्वरूपमतिक्रम्य पृथक्पृथक्व्यवस्थिताः। सर्वेशप सर्वथा मूढ भावात्रैलोक्यवर्तिनः॥११॥ भाषार्थ-हे मूद प्राणी ! तीनलोकवर्ती सर्व ही पदार्थ हैं
LC
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द्वादशानुप्रेक्षा स्विट (कासहिताः
४३
ते तेरे स्वरूपकुं उलंन्यव जिमकारकरि न्यारे न्यारे तिष्ठे
हैं तिनिकूं अन्य ही भाय
करे है तहाँ सामान्य
अब अन्यत्वभावनाका कथ
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करि उपदेश करे हैं
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः ।
मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्णयपथभ्रान्तेन बाह्यानलं भा - वान्स्वान्प्रतिपद्य जन्मगहने खिन्नं त्वया प्राचिरं । संप्रत्यस्तसमस्तविभ्रमभरश्चिद्रूपमेकं परं स्वस्थं स्वं प्रविगाह्य सिद्धिवनितावत्रं समालोकय ॥ १२॥
भावार्थ - हे आत्मन् । तू या संसाररूप गहन वनविषै मिथ्यात्वकरि संबंधरूप भई जो सर्वथा एकान्तरूप दुर्नय ताका मार्गविषै भ्रमरूप भयासन्ता बाह्य पदार्थनिकं अत्यर्थपणै अपने मानि अंगीकारकरि पहिले चिरकाल खेद खिन्न भया. अब अस्तभया है समस्त विभ्रमभार जाका ऐसा भया तू अपना आत्मा आपहीविषै तिष्टया ऐसा एक उत्कृष्ट चैतन्यरूप ताहि अवगाहन करि, तामैं लीन होय करि अर मुक्तिरूपी स्त्रीका मुख है ताहि अवलोकन करि देखि. भावार्थ - यह आत्मा अनादितैं पर भावनिकं अपने मानि तिनिमैं रमै है यातें संसार मैं भ्रम है ताकूं उपदेश किया है जो परभावनितैं न्यारा अपना चैतन्य भावमें लीन होय अर मुक्ति प्राप्त हो हु. यह अन्यत्व भावनाका उपदेश है. ऐसैं अन्यत्वभावनाका कथन पूरा किया ॥
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४४
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जैन ग्रन्थ रत्नाकरे.
याका संक्षेप यह जो या
लोकमें सर्व द्रव्य अपनी २ सत्ताकूं लिये न्यारे न्यारे हैं, कोऊ काहूरूप होय नाहीं. अर परस्पर निमित्त नैमित्तिक भावकरि किछू कार्य होय है ताके भ्रमकर यह प्राणी अहंकार ममकार परविषै करै हैं तहां जब अपना स्वरूप अन्य जानै तत्र अहंकार ममकार अपना आपमें होय तब परका उपद्रव आपके न आवै. यह अन्यत्वभावना है ॥ ५ ॥
दोहा.
।
अपने अपने सत्त्वकूं, सर्व वस्तु विलसाय । ऐसे चितवै जीव तब, परतें ममत न थाय ॥ ५ ॥ इति अन्यत्वानुप्रेक्षा ॥ ५ ॥
अथ अशुचित्वानुप्रेक्षा लिख्यते । आगें अशुचि भावनाका व्याख्यान हैं तहां शरीरका अशुचिपणा दिखावे हैं,
निसर्गगलिनं निन्द्यमनेका शुचिसंभृतम् । शुक्रादिवीजसंभूतं घृणास्पदमिदं वपुः ॥ १ ॥ भाषार्थ या संसार में यह प्राणीनिका शरीर है सो प्रथम तौ स्वभावहीकरि गलनेरूप है. बहुरि निंदवे योग्य है. बहुरि अनेक अशुचि धातु उपधातूनिकरि भस्या है. बहुरि शुक्र रुधिरबीजकरि उपज्या है ऐसा है ता गिलानिका स्थानक है ||
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
असृग्मांसवसाकीर्ण शीर्ण कीकसपञ्जरं । शिरानद्धं च दुर्गन्धं व शरीरं प्रशस्यते ॥ २॥
भाषार्थ-बहुरि यह शरीर कैसा है ! रुधिर मांस वसा (चरबी ) इनिकरि तौ व्याप्त है. बहुरि शीर्ण है सिडि रह्या है. बहुरि हाडनिका पंजर है. बहुरि शिरा जे नश तिनिकरि बंध्या है ऐसें सर्वप्रकार दुर्गन्धमयी है. आचार्य कहै हैं, कि—यह शरीर कौन ठिकाणै सराहिये है ? सर्व जायगां निन्द्य ही है ॥ ' प्रस्रवन्नवभिदारैः पूतिगन्धान्निरन्तरम् । क्षणक्षयं पराधीनं शश्वनरकलेवरम् ॥ ३ ॥
भाषार्थ--यह मनुष्यनिका शरीर है सो नवद्वारनिकरि तौ निरन्तर दुर्गन्धरूप झरता रहै है. बहुरि क्षणक्षयी है थिर नाही. बहुरि पराधीन है अन्नपाणी आदिका सहाय निति चाहै है ऐसे निरन्तर अपवित्र है ॥
कृमिजालशताकीर्णे रोगप्रचयपीडिते। जराजर्जरिते काये कीदृशी महतां रतिः ॥ ४ ॥
भाषार्थ—यह काय कैसा है ? लट कीडेनिके समूहके सैंकडेनिकरि तौ भख्या है बहुरि रोगनिके समूहनिकरि पीडित है. बहुरि जरा वृद्धअवस्थाकरि जर्जरा भया है ऐसा कायविषै महन्त पुरुषनिकै कैसे रति होय ? महतपुरुष यातूं रति नाही करै है।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
यद्यवस्तु शरीरेऽत्र साधुबुद्धया विचार्यते । तत्तत्सर्व घृणां दत्ते दुर्गन्धामध्यमन्दिरे ॥५॥
भाषार्थ--इस शरीरविषै जो जो वस्तु है सो सो भलेप्रकार बुद्धिकरि विचारिये तब ग्लानिका ठिकाणा है जातै यह शरीर दुर्गन्ध जो विष्टा ताका मंदिर है यामैं किळू भी पवित्र नाहीं ॥ यदीदं शोध्यते दैवाच्छरीरं सागराम्बुभिः । दूषयत्यपि तान्येव शोध्यमानमपि क्षणे ॥ ६॥
भाषार्थ-जो इस शरीरकू दैवयोगः समुद्रके नल करि भी शुद्ध कीजिये तो शोध्या हुवा तिस ही क्षणमें तिनि समुद्रके जलनिकू भी दूषण लगावै है अपवित्र दुर्गन्ध करै है. अन्यवस्तुकी कहा कथा ! कलेवरमिदं न स्याद्यदि चर्मावगुण्ठितम् । मक्षिकाकृमिकाकेभ्यः स्यात्रातुं कस्तदा प्रभुः ॥७॥
भाषार्थ-यह शरीर जो बाहिर चर्मकरि ढक्या न होय तौ मांखी कीड़ा लट कागले इनित रक्षा करने कू कौन समर्थ होय ? न होय। ऐसे शरीरकू देखि सत्पुरुष दूरि छोडै तब रक्षा कौन करे ?
सर्वदैव रुजाक्रान्तं सर्वदेवाशुचेहम् ।
सर्वदापतनप्रायं देहिनां देहपञ्जरम् ॥ ८ ॥ भाषार्थ--यह प्राणीनिका देहरूप पीजरा है सो
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
४७
कैसा है सदा ही तौ रोगकरि व्याप्त है अर सदा ही अशुचिका घर है अर सदा ही पड़नेके स्वभावरूप है. यह मति जानुं जो कोई काल तो भला होगा ॥ तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभिः । विरज्य जन्मनः स्वार्थे यैः शरीरं कदर्थितम् ॥ ९ ॥ __ भाषार्थ--इस शरीरके पावनेका फल तिनि. लिया ने संसारनै विरक्त होयकरि आत्मकल्याण निमित्त इस शरीरकू पुण्यकार्यकरि क्षीण किया ॥ शरीरमेतदादाय त्वया दुःखं विसयते । जन्मन्यस्मिंस्ततस्तद्धि निःशेषानर्थमन्दिरम् ॥ १० ॥
भाषार्थ---हे आत्मन् ! तैं या शरीरकू ग्रहणकरि इस संसारविषै दुःखकू पाया सह्या तातै निश्चयकरि यह जानि जो यह शरीर समस्त दुःखनिका मन्दिर है याके संगरौं सुखका लेश भी मति जानै ॥ भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीह देहिभिः । सह्यन्ते तानि तान्युचैर्वपुरादाय केवलम् ॥ ११ ॥
भाषार्थ--या संसारविषै प्राणीनिकरि जे जे संसार ते उपजे दुःख सहिये हैं ते ते सर्व अतिशयकरि केवल एक शरीरकू ग्रहणकरि सहिये हैं, यातै निवृत्ति भये पीछे दुःख नाहीं है ॥
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४८
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
आर्याछन्दः ।
कर्पूरकुंकुमागुरुमृगमदहरिचन्दनादिवस्तूनि । भव्यान्यपि संसर्गान्मलिनयति कलेवरं नृणाम् ॥१२
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भाषार्थ - कपूर केशरि अगुरु कस्तूरी हरिचन्दन इत्यादि सुगन्ध वस्तु हैं ते भले सुन्दर हैं तिनिकूं भी यह मनुष्यनिका शरीर है सो संसर्गतैं मलिन करे है. आप तो मलिन है ही परन्तु संसर्गतैं भली वस्तूनिकूं भी मलिन करें है यह अधिकता है |
-
अब अशुचि भावनाका कथनकूं पूर्ण करे हैं तहां सा
मान्यकरि कहै हैं,
•
मालिनी छन्दः ।
अजिनपटलगूढं पञ्जरं कीकसानाम् कुथितकुणिपगन्धैः पूरितं मूढ गाढं । यमवदननिखिन्नं रोगभोगीन्द्र गेहम्
कथमिह मनुजानां प्रीतये स्याच्छरीरम् ॥१३॥ भाषार्थ हे मूढ प्राणी ! इस संसारविषै यह मनुष्यनिका शरीर है सो कैसा है, चर्मके पटलकरि तौ ढक्या है बहुरि हानिका पींजरा है. बहुरि बिगडी राधिकी दुर्गन्ध करि पूर्ण गाढ़ा अतिशयकरि भरचा है. बहुरि कालके मुखविषै बैठा है बहुरि रोगरूप सर्पनिका घर है. ऐसा है तो ऊ प्रीतिकै अर्थि कैसे है ! यह अचिरन है । ऐसें अशुचि भावनाका वर्णन कीया ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीका सहिता.
याका संक्षेप ऐसा जो आत्मा तौ निर्मल है अमूर्तीक निमित्ततैं याकै शरीरका
है ताकै मल नहीं. अर कर्मके सम्बन्ध हैं. ताकूं अज्ञान मोहकर हैं. अर यह मनुष्य का शरीर है सो ताका निवास है तातैं याविषै अशुचिभावना भावे तत्र यातें वैराग्य होय अपना निर्मल आत्मस्वरूपविषै रमनेकी रुचि होय यह अशुचिभावनाके वर्णनका आशय है. ॥
४९
अपनाय भला जानै सर्वप्रकार अपवित्र
दोहा.
निर्मल अपना आत्मा, देह अपावन गेह | जानि भव्य निजभावकूं, यासूं तजो सनेह ॥ ६ ॥ इति अशुचिखानुप्रेक्षा ॥ ६ ॥
अथ आस्त्रवानुप्रेक्षा लिख्यते । आगे आस्त्रवभावनाका व्याख्यान करे हैं तहां आस्रवका स्वरूप कहै हैं—
मनस्तनुवचः कर्मयोग इत्यभिधीयते ।
स एवास्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः ॥ १ ॥ भाषार्थ- -- मन काय वचन इनका कर्म कहिये क्रिया सो योग ऐसा कहिये है. बहुरि सो योग है सो ही आस्त्रव है. ऐसें जे तत्त्वज्ञानविषै प्रवीण हैं तिनिनै कया है भावाथ - यह स्वरूप तत्त्वार्थ सूत्रमें कया है || वार्डेरन्तः समादत्ते यानपात्रं यथा जलम् । छिद्रेर्जीवस्तथा कर्म योगरन्यैः शुभाशुभैः ॥ २ ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ-जैसैं समुद्रकैमध्य जिहाज है सो छिद्रनिकरि जलकुं ग्रहण करै है, तैसैं जीव है सो योगरूप छिद्रनिकरि कर्मकू ग्रहण करै है. कैसे हैं योग ? शुभ अशुभ भेदकरि दाय प्रकार हैं ।
यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम् ।
मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवं ॥ ३ {{ भाषार्थ-यम कहिये अणुव्रत महाव्रत, प्रशम कहिये कषाययनिकी मंदता निवेद कहिये संसारसों वैराग्य तथा धर्मानुराग अर तत्त्वनिका चिन्तवन इनिका आलम्बनयुक्त मन होय तथा मैत्री प्रमोद करुणाभाव मध्यस्थभाव ए मनविले भावना होय ऐसा मन है सो तो शुभास्रवकू उपजावै है ।।
कषायदहनोद्दीप्तं विषयाकुलीकृतम्
संचिनोति मनः कर्म जन्मसंवन्धसूचकम्॥ ४॥ भाषार्थ-कषायरूप अग्निकरि प्रज्वलित अर इद्रियनिके विषयनिकरि व्याकुल ऐसा मन है सो संसारके संबन्धका सूचक अशुभ कर्मका संचय करै है। विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलम्बितम् । शुभास्त्रवाय विज्ञेयं वचः सत्यप्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥ भाषार्थ-समस्त अन्यव्यापारकरि रहित अर श्रुत ज्ञानका अवलम्बनयुक्त अर सत्यरूप प्रतिष्ठावान् जाडूं कोई निदै नहीं ऐसा वचन है सो शुभास्रवकेअर्थि होय है ।।
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
अपवादास्पदीभूतमसन्मार्गोपदेशकम् । पापासवाय विज्ञेयमसत्यं परुषं वचः ॥६॥
भाषार्थ---अपवाद निंदाका तौ ठिकाणा अर मिथ्यामार्गका उपदेश करणेवाला अर असत्य अर कठोर काननिते सुणते ही परकै कषाय उपजै तथा परका जाकरि बुरा होय एसा वचन है सो अशुभ आस्रवके अर्थि जानना ।।
सुगुप्तेन स्वकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम् । संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी ॥ ७॥
भाषार्थ—सम्यक्प्रकार गुप्तिरूप किया अपने वश कीया जो काय ताकरि, अथवा निशदिन कायोत्सर्गकरि संयमी मुनि है सो ऐसे काययोगकरि शुभकर्म संचै है ॥
सततारम्भयोगैश्च व्यापारैजन्तुघातकैः । शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम् ॥ ८॥
भाषार्थ--निरन्तर आरंभके हैं योग जिनिमें बहुरि जीवनिक घात करनेवाले ऐसे व्यापारनिकरि यह शरीर है सो प्राणीनिके पापकर्म जो अशुभकर्म तिनहि जोडै है. यह काययोगकरि अशुभ आस्रव कह्या ॥ __ अब आस्रवका व्याख्यान पूरा करै हैं, तहाँ सामान्यकरि कहै हैं,---
शिखरिणी छन्दः कषायाः क्रोधाद्याः स्मरसहचराः पञ्चविषयाः प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च ।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. दुरन्ते दुध्यांने विरतिविरहश्चेति नियतम्। स्रवन्त्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम् ॥ ९ ॥
भाषार्थ-~-या संसारविषै पुरुषनिकै एते परिणाम संसारके भय देनेवाला पापका समूहळू आस्रवस्वरूप करै हैं. ते कोन : प्रथम तो मिथ्यात परिणाम, बहुरि क्रोधकू आदिदे कपाय, बहुरि कामके सहचर एसे पंचइन्द्रियनिके विषयभोगनेक परिणाम, बहुरि प्रमाद विकथादिक, बहुरि मनवचनकायक योग, बहुरि व्रतरहित अविरत परिणाम बहुरि आरौिद्र अशुभ ध्यान, एते परिणाम नियम” पापास्रवकू करें हैं इनि परिणामनिका विशेषस्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी टीकातें जानना ऐसे आस्रवभावनाका कथन कीया ।
याका संक्षेप ऐसा जो यह आत्मा शुद्धनयकी दृष्टिमें तो आस्रव” रहित केवलज्ञानस्वरूप है तथापि अनादिकर्मसंबन्ध मिथ्यात्व आदि परिणामरूप परिणमै है. यात नवीन कर्म आस्रव करै है. तातै तिनि मिथ्यात्व आदि परिणाम नित निवृत्तिकरि अपने स्वरूपका ध्यान करै तब आस्रवनिने रहित होय मुक्त होय. यह आस्त्रवके कथनका आशय है ।।
दोहा। आतम केवल ज्ञानमय, निश्चयदृष्टिनिहारि । सब विभाव परिणाममय, आस्रवभाव विडारि ॥ ७ ॥
इति आस्रवानुप्रेक्षा ॥ ७ ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषीकासहिता.
अथ संवरानुप्रेक्षा लिख्यते । आगे संवरभावनाका व्याख्यान करै हैं. तहां संवरका स्व. रूप कहै हैं,सर्वास्रवनिरोधो यः संवरः स प्रकीर्तितः। द्रव्यभावविभेदेन स द्विधा भिद्यते पुनः ॥ १॥ भाषार्थ--जो सर्व आस्रवनिका निरोध सो संवर कह्या है. ऐसे तो सामान्यकरि एक ही प्रकार है. बहुरि सो ही सं. वर द्रव्यभावके भेदकरि दोयप्रकार भेदरूप कीजिये हैं । ___ अब दोय भेदनिका स्वरूप कहै हैं,यः कर्मपुद्गलादानविच्छेदः स्यात्तपस्विनः। स द्रव्यसंवरः प्रोक्तो ध्याननिधूतकल्मषैः ॥ २॥
भाषार्थ-जो तपस्वी मुनिनिकै कर्मरूप पुद्गलनिका ग्रहणका विच्छेद होय सो द्रव्यसंवर है ऐसें ध्यानकरि उडाये हैं पाप जिनिनै ऐसे मुनिनिनै कह्या हैं । या संसारनिमित्तस्य क्रिया या विरतिः स्फुटं । स भावसंवरस्तज्ज्ञर्विज्ञेयः परमागमात् ॥ ३ ॥
भाषार्थ---जो संसारका कारण कर्मका ग्रहण, ताकी क्रियाकी विरति कहिये अभाव, सो प्रगट भावसंवर है. ऐसे तिस संवरके ज्ञातानिकरि परमागमतें जानने योग्य है ।
असंयममयैर्वाणैः संवृतात्मानभिद्यते । यमी यथा सुसंन्नद्धो वीरः समरसंकटे ॥ ४ ॥
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जैन ग्रन्थ रत्नाकरे.
भाषार्थ – संयमी मुनि है सो संसारनिमित्त क्रियातें विरतिरूप संवरयुक्त है आत्मा जाका ऐसा भया सन्ता असंयममयी वाणनिकरि भेद्या न जाय है. जैसे संग्रामके संघट्टमैं भलेप्रकार सज्या सुभट है सो वाणनिकर भेद्या न जाय तैसें जानना ॥
अब आस्रवनिके रोकने का विधान कहै हैं,
जायते यस्य यः साध्यः स तेनैव निरुध्यते । अप्रमत्तः समुयुक्तः संवरार्थं महर्षिभिः || ५ || भाषार्थ - प्रमादरहित अर संवरके अर्थ उद्यमी ऐसे महामुनिनिकरि जो जाकै साध्य होय है ताहीकरि सो रोकिये है. भावार्थ- जाकार आस्रव होय ताका प्रतिपक्षी भावकरि सो रोकिये सो ही आगे कहै हैं,
—
क्षमा क्रोधस्य मानस्य मार्दवत्वार्जवं पुनः । मायाया संगसंन्यासो लोभस्यैते द्विपः क्रमात् ॥ ६ ॥
माषार्थ - क्रोध कषायका तौ क्षमा शत्रु है. बहुरि मानकषायका मृदुभाव - कोमलपणा शत्रु है. बहुरि मायाकषायका ऋजुभाव सरलभाव शत्रु है. बहुरि लोभकषायका परिग्रहका त्याग शत्रु है. ए अनुक्रमतें जानने ||
रागद्वेषौ समत्वेन निर्ममत्वेन वानिशम् । मिथ्यात्वं दृष्टियोगेन निराकुर्वन्ति योगिनः||७|| भाषार्थ - योगी ध्यानी मुनि हैं ते रागद्वेषकूं तो निरन्तर समभावकरि निराकरण करे हैं अथवा निर्ममत्वकरि
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ५५ निराकरण करै हैं. बहुरि मिथ्याभावकू निर्ममत्त्वकरि अर सम्यग्दर्शनके योगकरि निराकरण करै हैं ।
अविद्याप्रसरोद्भूतं तमस्तत्त्वावरोधकम् ।
ज्ञानसूर्यांशुभिर्वाद स्फेटयन्त्यात्मदर्शिनः ॥८॥ भाषार्थ-आत्माके देखनेवाले मुनि हैं ते अविद्याका फैलावकरि उपज्या अर तत्त्वज्ञानका रोकनेवाला ऐसा अज्ञानरूप अंधकारकू ज्ञानरूप सूर्यके किरणनिकरि अतिशयकरि दूरि करै हैं॥
असंयमगरोद्गारं सत्संयमसुधाम्बुभिः । निराकरोति निःशङ्कं संयमी संवरोद्यतः॥९॥ भाषार्थ-संवरकैविषै उद्यमी संयमी पुरुष हैं सो असंयमरूप जहरका उद्गार है ताहि सम्यक्संयमरूपी अमृतमयी जलनिकरि दूरि करै हैं यामें संशय नाही ।
द्वारपालीव यस्योच्चैर्विचारचतुरा मतिः । हृदि स्फुरति तस्याघसूतिः स्वप्नेऽपि दुर्घटा ॥१०॥
भाषार्थ-जा पुरुषकै अतिशयकरि विचारके विषै चतुर ऐसी बुद्धि हृदयविष स्फुरायमान है ताके हृदयविषै पापकी उत्पत्ति स्वप्नविषै भी दुर्घट है. नाही प्रवत्र्त है. कैसी है बुद्धि द्वारपालीकी ज्यों है. जैसे द्वारै चतुर स्त्री तिष्टै सो मंदिरमैं मलिनकू प्रवेश नाही करने दे, तेसैं यह बुद्धि पापकू प्रवेश न करनै दे है ॥ .
अब संक्षेप करि कहै हैं,--
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जैनग्रन्थरत्नाकर.
विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मनः । यदा धत्ते तंदैवस्यान्मुनः परमसंवरः ॥ ११ ॥
भाषार्थ-जिसकाल सर्वकल्पनाका जालकू छोडि अ. पने स्वरूपकेविषै मनकू निश्चित थांमै तिसही काल मुनिकै परम संवर होय है ।।
आगें संवरका कथन पूर्ण करै हैं. तहां संवरकी महिमा
मालिनी छन्द। सकलसमितिमूलः संयमोदामकाण्डः
प्रशमविपुलशाखो धर्मपुष्पावकीर्णः । अविकलफलबन्धैर्वन्धुरो भावनाभि
जयति जितविपक्षः संवरोद्दामवृक्षः ॥ १२ ॥ भाषार्थ-यह संवररूप उत्कृष्ट वृक्ष है सो सर्वोत्कर्ष करि वर्ते है कैसा है? ईर्यासमितिकू आदि पांचसमिति सो है मूल जाकै. बहरि सामायिक आदि समय सा ही है स्कन्ध जाकै, बहुरि प्रशम कहिये विशुद्ध भाव सोही है विस्तीर्णा शाखा जाकै, बहुरि उत्तम क्षमादिक धर्म, सो ही भये फूल, तिनिकरि व्याप्त है. बहुरि बारह भावना तिनिकरि बंधुर है सुंदर है. कैसी है भावना ? अविकल है फलका बंध जिनितें. जैसे फलके वीट गाढा होय तौ फलकू पड़ने न दे, तैसैं भावनाका भावना है सो संवरके फल• दृढ करै है। ऐसे संवरभावनाका व्याख्यान किया ।
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
याका संक्षेप ऐसा जो यह आत्मा अनादितैं अपने स्वरूपकं भूलि रह्या है या आवभावकरि कर्मनिकं बांधे है अर जब अपना स्वरूपकं जानि तिसमें लीन होय तब संवररूप होय आगामी कर्मनिकूं न बांधै, तब पूर्वबंधकी निजरा करि मोक्ष प्राप्त होय ताके बाह्यसाधन समिति गुप्तिं धर्म अनुप्रेक्षा परीसहजय चारित्र कहे हैं. तिनिका विशेष कथन तत्त्वार्थसूत्रकी टीका जानना ॥
दोहा.
निज स्वरूपमें लीनता, निश्चयसंवर जानि । समिति गुप्ति संयमधरम, घरे पापकी हानि ॥८॥ इति संवरानुप्रेक्षा ॥ ८ ॥
अथ निजारनुप्रेक्षा लिख्यते ।
आगे निर्जरा भावनाका व्याख्यान करे हैं तहां निर्जराका स्वरूप तथा जिनिकै यह होय तिनिकं क है हैं,
यया कर्माणि शीर्यन्ते बीजभूतानि जन्मनः प्रणीता यमिभिः सेयं निर्जरा जीर्ण बन्धनैः ॥ १ ॥ भाषार्थ - जाकरिसंसारके बजिभूत जे कर्म ते गलें झड़ें सो निजरा संयमी मुनिनिनै कही हैं कैसे हैं ते मुनि जीर्ण भये हैं कर्मके बन्धन जिनिके ऐसे हैं ॥
सकामाकामभेदेन द्विधा सा स्याच्छरीरिणाम् । निर्जरायमिना पूर्वा ततोऽन्या सर्वदेहिनाम् ||२||
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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
भाषार्थ -- यह निर्जरा है सो सकाम अर अकाम भेदकर देहधारी निकै दोयप्रकार है तामैं पूर्वा कहिये पहली सकाम निजरा है सो तो संयमी मुनिनिकै होय है बहुरि दूसरी अकाम है सो सर्व प्राणीनिकै होय है. विना तपश्चरणादिके स्वयमेव निरंतर कर्म उदय रस देय क्षरे है ।
पाकः स्वममुपायाच्च स्वात्कलानां तरोर्यथा । तथात्रकर्मणां ज्ञेया स्वयं स्वोपायलक्षणा || ३ ||
भाषार्थ - या लोकविषै जैसे वृक्षनिक फलीनका पकना है सो स्वयमेव आपही भी होय है और उपाय जो पालमें देना तिसतें भी होय है. तैसे ही कर्मनिका पाक ( पचना ) होय है. अपने आप ही स्थितिपूरी भये पकि खिर जाय है तथा उपाय जो सम्यग्दर्शनादिसहित तपश्चरणतैं भी पकि क्षैरे है. ऐसें स्वयं और सोपायस्वरूप दोयप्रकार पचना जानना ||
विशुद्धयति हुताशेन सदोषमपि काञ्चनम् । यद्वत्तथैव जीवोऽयं तप्यमानस्तपोऽग्निना ॥ ४ ॥ भाषार्थ - सुवर्ण है सौ अग्निकरि तपाया वा विशुद्ध होय है दोष सहित होय तौ भी ताका दोपनिकसिजाय है तैसे ही यह जीव है, सो भी दोषनिकरि सहित है सो भी तपरूप अग्निकरि तपाया हूवा विशुद्ध होय जाय है || चमत्कारकरं धीरैर्बाह्य माध्यात्मिकं तपः । तप्यते जन्मसन्तानशङ्कितैरार्यसूरिभिः ॥५॥ भाषार्थ -- ऐसें पूर्वोक्त निर्जराका कारण तपकूं जाणि
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द्वादशानुरेशां भाषाटीकासहिता. ५९ अर बडे महतं आचार्य मुनि हैं तिनिकरि चमत्कारका करनेवाला बाह्य अर अन्तरंग स्वरूप तप है सो तपिये है. कैसे हैं आचार्य ? तप करनेकू धीरवीर हैं समर्थ हैं. बहुरि कैसे हैं ? संसारका सन्तान परिपाटी आगामी होनेकी शंकाकरियुक्त है. यह बिचारै है जो अबताई संसारके दुःख सहे अव तपकरि कर्मकी निर्जराकरि संसारकी परिपाटीका अभाव करेंगे. यह विचार दोऊ प्रकारके तपकू समर्थ होय करै हैं ॥
तत्र बाह्यं तपःप्रोक्तमुपवासादि षड़िधम् । प्रायश्चित्तादिभिर्मेंदरन्तरङ्गैव षड्दिधम् ॥ ६ ॥
भाषार्थ-तिसतपविषै बाह्य तप है सो तो उपवासादि क भेदकरि छहभेदरूप कह्या है. ते–अनशन अवमोदर्य वृत्तिपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्तसय्यासन कायक्लेश एसैं छह भेद हैं. बहुरि अन्तरंग तप है सो प्रायश्चित आदि भेदनिकरि छह प्रकार हैं-ते प्रायश्चित विनय वैयावृत्त्य स्वाध्याय व्युत्सर्ग ध्यान ऐसे छह भेद हैं. तिनिका स्वरूप विशेषकरि तत्त्वार्थसूत्रकी टीकातें जानना ॥
निर्वेदपदवीं प्राप्य तपस्यति यथा यथा। यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयाणि तथा तथा ॥७॥
भाषार्थ-संयमी मुनि है सो वैराग्य पदवी• प्राप्त होय करि जैसे २ तप करै है तैसैं कर्म २ दुर्जय है तोउ. तिनिकू क्षय करै है. ॥
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६०
जैनग्रन्थरत्नाकरे. ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद्भवम् । सद्यः प्रक्षीयते कर्म शुद्धयत्यङ्गी सुवर्णवत् ॥ ८ ॥
भाषार्थ-कर्म है सो अनादिकालौं उपज्या है तोङ ध्यानरूप अग्निकार स्पा हूवा तत्काल क्षय होय है. ताके क्षय होते जैसैं अग्निकरि सुवर्ण शुद्ध होय है तेसैं प्राणी तपकरि कर्मका नाश भये शुद्ध होय है।
अब निर्जराका कथन पूर्ण करै हैं सो सामान्यकरि कहै हैं,
स्रग्धराछन्दः। तपस्तावद्वाह्यं चरति सुकृती पुण्यचरितस्ततश्चात्माधीनं नियतविषयं ध्यानपरमं । क्षपत्यन्तीनं चिरतरचितं कर्मपटलम् ततो ज्ञानाम्भोधिं विशति परमानादनिलयं ॥९॥
भाषार्थ-पवित्र है आचरण जाकै ऐसा सुकृति सत्पुरुप है सो प्रथम तौ बाह्यका तप है अनशनादिक ताहि आचरै है ता पीछे आत्माधीन अंतरंग तप है ताहि आचरे . तिसमैं नियत है विषय जाका ऐसा ध्यान नामा तप हे सो उत्कृष्ट है ताहि आचरै है. तिस तपते घणे कालका संचयरूप भया जो अन्तरंगविषै कर्मका पटल ताहि क्षेपै है क्षय करै है. घातिकर्मका नाश करै है. ता पीछे ज्ञानरूप समुद्रविषै प्रवेश करै है कैसा है ज्ञानसमुद्र ! परम आनंद अतीन्द्रिय जो सुख ताका निवास है। ऐसे निर्जरा भावनका कथन पूर्ण कीया ॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
याका संक्षेप ऐसा जो आत्माकै कर्मका संबंध अनादि कालते है. तहां यह आत्मा कालादि लब्धिका निमित्त पाय अपना स्वरूप संभारै अर तपश्चरणकरि ध्यानमें लीन होय तब संवररूप होय. आगामी कर्म न बांधै अर पूर्वकर्म आपैआप निर्जरारूप होय तब मोक्ष पावै ॥
दोहा.
संवरमय है आत्मा, पूर्वकर्म झाडि जाय । निजस्वरूपकू पायकरि, लोकशिखर तब थाय ॥९॥
इति निर्जरानुप्रेक्षा ॥ ९॥
अथ धर्मानुप्रेक्षा लिख्यते। आगे धर्मभावनाका व्याख्यान करै हैं,पवित्री क्रियते येन येनैवोद्धियते जगत् । नमस्तस्मै दयाय धर्मकल्पांहिपाय वै ॥ १॥
भाषार्थ-जिस धर्मकरि जगत पवित्र कीजिये अर जिसहीकरि उद्धारिये तिस धर्मरूप कल्पवृक्षकेअर्थि न. मस्कार होहु, कैसा है धर्मरूप कल्पवृक्ष ? दयाकरि आर्द्रित है. डह डहा है. ऐसे धर्मकी बडाई करि आचार्यने नमस्कार किया है।
दशलक्ष्मयुतः सोऽयं जिनधर्मः प्रकीर्तितः । यस्यांशमपि संसेव्य विन्दन्ति यमिनः शिवम् ॥२॥
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६२
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जैनग्रन्थरत्नाकरे.
भाषार्थ - सो यह धर्म जिनेन्द्र भगवाननें दशलक्षणयुक्त
कया है. कैसा है जाका अंशकूं भी सेयकार संयमी मुनि मुक्ति पा है |
न सम्यग्गदितुं शक्यं यत्स्वरूपं कुदृष्टिभिः । हिंसाक्षपोषकैः शास्त्रैरतस्तैस्तन्निगद्यते ॥ ३ ॥
भाषार्थ - जिस धर्मका स्वरूप मिथ्यादृष्टीनिकरि हिंसा अर इन्द्रियनिके पोषनेवाले शास्त्रनिकरि कहनेकूं समर्थ न हूजिये है. तातैं याका स्वरूप यथार्थ हम कहे हैं ||
चिन्तामणिर्निधिर्दिव्यः स्वर्धेनुकल्पपादपाः । धर्मस्यैते श्रिया सार्द्ध मन्ये भृत्याश्चिरन्तनाः ॥४॥ भाषार्थ - चिन्तामणि दिव्य नवनिधि कामधेनु कल्पवृक्ष ए सर्व लक्ष्मीकरि सहित धर्मके बहुत कालतैं किंकर हैं आचार्य कहै हैं मैं असें मानू हो ॥
धर्मो नरौरगाधीशनाकनायकवाञ्छितां । आप लोकत्रयीपूज्यां श्रियं दत्ते शरीरणाम् ॥ ५ ॥
भाषार्थ — धर्म है सो चक्रवर्ति धरणीन्द्र देवेन्द्रकरि
-
- वांछित अर तीन लोककरि पूज्य ऐसी जो तीर्थकरकी लक्ष्मी ताहि प्राणी
है |
धर्मों व्यसनसम्पाते पाति विश्वं चराचरम् । सुखामृतपयः पूरैः प्रीणयत्यखिलं जगत् ॥ ६ ॥ भाषार्थ - धर्म है सो कष्टके संपातविषै समस्त
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
६३
सथावर जीवनिकं राखै है रक्षा करे है. बहुरि सुखरूप अमृत जलके प्रवाहकार समस्त जगतकूं तृप्ति करे है || पर्यन्यपवनार्केन्दुधराम्बुधिपुरन्दराः । अमी विश्वोपकारेषु वर्त्तन्ते धर्मरक्षिताः ॥ ७ ॥ भाषार्थ - मेघ पवन सूर्य चन्द्रमा पृथिवी समुद्र इन्द्र ए सर्व पदार्थ हैं ते जगतके उपकारविषै प्रवर्तें है ते धर्मके राखे हुये प्रवर्त्ते है धर्म विना ये उपकारी नाहीं होय है ॥ मन्येऽसौ लोकपालानां व्याजेनाव्याहतक्रमः । जीवलोकोपकारार्थं धर्म एव विजृम्भितः ||८|| भाषार्थ - आचार्य कहै हैं जो मैं ऐसें मानू हूं जो ए इन्द्रादिक लोकपाल अथवा राजादिक हैं तिनिका मिस करि लोकनि उपकारकै अर्थ धर्म ही विस्तस्या है. कैसा है धर्म? अव्याहत है क्रम कहिये व्यापार रूप प्रवर्त्तना जाकी, याका किया उपकार कोऊ मेटि सकै नाहीं है |
न तत्रिजगतीमध्ये भुक्तिमुक्त्योर्निबन्धनम् । प्राप्यते धर्मसामर्थ्यान्नयद्यमितमानसैः ॥ ९ ॥ भाषार्थ - इस तीन जगतकै मध्य भोग अर मोक्षका कारण ऐसा कोऊ नाहीं है जो धर्मकूं प्राप्त है मन जिनिका ऐसे पुरुषनिकारि धर्मकी सामर्थ्य न पाइये है, या धर्मकी सामर्थ्य सर्वमनोवांछित पाइये है |
नमन्ति पादराजीवराजिकां नतमौलयः । धर्मैकशरणीभूतचेतसां त्रिदिशेश्वराः ॥ १० ॥
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. __ भाषार्थ-धर्म ही एक शरणीभूत है ऐसा है चित्तजिनिका तिनिके चरण कमलनिकी पंक्ति• देवनिके इन्द्र हैं ते नमस्कार करै हैं. कैसे भये? नमे हैं मस्तक जिनिके ऐसे भये सन्ते । भावार्थ--धर्मके माहात्म्य तीर्थकर पदवी पावै तिनि• इन्द्र भी आय नमै है ॥
धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्मः स्वामी च बान्धवः । अनाथवत्सलः सोऽयं स त्राता कारणं विना ॥११॥ भाषार्थ-धर्म है सो गुरु है बहुरि मित्र भी धर्म ही है स्वामी भी धर्म ही है बहुरि बान्धव हितू भी धर्म ही है. बहुरि अनाथ जाका कोई स्वामी नाहीं ताका वत्सल प्रीतिः रक्षा करनेवाला स्वामी भी धर्म ही है. बहुरि सो यह धर्म ही विनाकारण रक्षा करनेवाला है या प्राणीकू अन्य शरणा वृथा है ॥ धत्ते नरकपाताले निमज्जज्जगतां त्रयं । यो जयत्यपि धर्मोऽयं सौख्यमत्यक्षमङ्गिनां ॥१२॥ ___ भाषार्थ-यह धर्म है सो नरकके तलैं पाताल निगोद है ताविषै डूबता जो जगतका त्रिक-तीन लोकके प्राणी तिनिळू धत्ते कहिये धारण करै है पड़ते• आधार होय है। बहुरि केवल धारै ही नाहीं है प्राणीनिळू अतीन्द्रियसुखयुक्त भी करै है धर्म ऐसा है ॥
नरकान्धमहाकूपे पतितां प्राणिनां स्वयम् । धर्म एव स्वसामर्थ्याहत्ते हस्तावलम्बनम् ॥१३॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ६५ __ भाषार्थ-बहुरि यह धर्म है सो ही प्राणीनिकू नरकरूप महाअन्धकूपविषै आप आप पड़तेनिकू अपनी सामर्थ्य हस्तावलम्बन दे है पड़तनिकू थांभै है ॥
महातिशयसंपूर्ण कल्याणोदाममन्दिरम् । धर्मो ददाति निर्विघ्नं श्रीमत्सर्वज्ञवैभवम् ॥१४॥
भाषार्थ-धर्म है सो महान् अतिशयनिकरि पूर्ण अर कल्याणनिका उत्कट निवास ऐसी लक्ष्मीकरि सहित सर्वज्ञका विभव निर्विघ्नपणे दे है । तीर्थंकरकी पदवी दे है ॥
याति सार्ध तथा पाति करोति नियतं हितं । जन्मपकात्समुद्धृत्य स्थापयत्यमले पथि ॥१५॥ भाषार्थ-धर्म है सो प्राणीकै परलोकविषै साथि जाय है तथा रक्षा करै है. तथा नियमकरि हित ही करै है। बहुरि संसाररूप कर्दमते काढि निर्मल मार्ग जो शुद्ध मोक्षमार्ग ताविषै स्थापै है ॥
न धर्मसदृशः कश्चित्सर्वाभ्युदयसाधकः । आनन्दकुजकन्दश्च हितः पूज्यः शिवप्रदः ॥१६॥ भाषार्थ-या जगतविषै धर्मसारिखा अन्य कोई सर्व अभ्युदयका साधक नाहीं है मनोवांछित सम्पदाका देने वाला यह ही है। कैसा है आनंदरूप वृक्षका तौ कन्द है आनंदके अंकूरे इसहीतै उपजै हैं बहुरि हितरूप अर पूजनीक अर मोक्षका दाता यह धर्म ही है अन्य नाहीं है ॥
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जैनप्रन्थरत्नाकरे. व्यालानलनरव्याघ्रद्विपशार्दूलराक्षसाः। नृपादयोऽपि द्रुह्यन्ति न धर्माधिष्टितात्मने ॥१७॥
भाषार्थ जो धर्मकरि अधिष्टित आत्मा है ताकै निमित्त सर्प अग्नि मनुष्य बघेरा हस्ती सिंह राक्षस ए सर्व बहुरि राजादिक ते सर्वही द्रोह न करै है. यह धर्म सवते रक्षा करै है. अथवा ते सर्व धर्मात्माके रक्षक होय हैं ॥
निःशेषं धर्मसामर्थ्य न सम्यग्वक्तुमीश्वरः । स्फुरदसहस्रेण भुजगेशोऽपि भूतले ॥ १८ ॥
भाषार्थ-आचार्य कहै हैं जो इस धर्मका सामर्थ्य सम्पूर्ण सम्यक्प्रकार कहनेकू भुजगेश जो शेषधरणीन्द्र सो भी स्फुरायमान हजार मुखकरि या भूतलविषै समर्थ नाही सो हम कैसैं समर्थ हो हिं॥
धर्मधर्मेति जल्पन्ति तत्त्वशून्याः कुदृष्टयः । वस्तुतत्त्वं न बुध्यन्ते तत्परीक्षाक्षमो यतः ॥१९॥
भाषार्थ-जे तत्त्वके यथार्थ ज्ञानकरि शून्य हैं, ऐसे मिथ्या दृष्टि हैं ते धर्म धर्म ऐसैं तो कहै हैं परन्तु वस्तुका यथार्थ स्वरूपकू नाहीं जानै हैं. जाते ते तिस धर्मकी परीक्षाकेविषै असमर्थ हैं. भावार्थ---नाम मात्र तथा विपरीतरूप धर्म धर्म ऐसा तौं कहै हैं परन्तु वस्तुका स्वरूप यथार्थ जाने विना सांची परीक्षा कैसैं होय ? नाही होय. यह परीक्षा जिनागमतें ही होय है तहां जिनागममैं धर्म कह्या है सो कहै हैं,--
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
तितिक्षामाईवं शौचमार्जवं सत्यसंयमौ । ब्रह्मचर्य तपस्त्यागाकिञ्चन्यं धर्म उच्यते ॥२०॥
भाषार्थ-क्षमा मार्दव शौच आर्जव सत्य संयम ब्रह्मचर्य तप त्याग आकिंचन्य ए दशप्रकार धर्म है इनिका स्वरूप विशेष तत्त्वार्थ सूत्रकी टीकातें जानना ॥
आर्याछन्दः । यद्यत्स्वस्यानिष्टं तत्तद्वाचित्तवृत्तिभिः कार्य । स्वमेऽपि नापरेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिङ्गम्॥२१॥
भाषार्थ-धर्मका मुख्य प्रधान चिह्न यह है कि जो जो आपकै अनिष्ट है आपकू बुरा लागै है सो सो परकै वचन मन कायकी क्रियाकरि सुपनेविषै भी न करना ॥ ___ अब धर्मभावनाके कथनकू पूर्ण करै हैं तहां समान्यकरि कहै हैं,--
शार्दूलविक्रिडित छन्दः। धर्मः शर्मभुजङ्गपुङ्गवपुरीसारं विधातुं क्षमो धर्मः प्रापितमर्त्यलोकविपुलप्रीतिस्तदाशंसिनं । धर्मः स्वर्नगरीनिरन्तरसुखास्वादोदयस्यास्पदम् धर्मः किं न करोति मुक्तिललनासंभोगयोग्यंजनम् २२ ___ भाषार्थ-यह धर्म है सो धर्मात्मा पुरुषनिकै धरणीन्द्रिकी पुरीका सार सुखळू करनेकू समर्थ है. बहुरि धर्म है सो तिस धर्मके बांछक अर पालनेवाले पुरुषनिळू प्राप्तकरी है मनुष्यलोकविषै विस्तीर्ण बडी प्रीति जानै ऐसा है. बहुरि धर्म
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जैनग्रन्थरत्नाकरे,
है सो स्वर्गपुरीका निरन्तर सुखका उदय ताका ठिकाणा या नन· करै है बहुरि धर्म है सो धर्मात्मा जनकू मुक्तिरूप स्त्रीका संभोगकै योग्य करै है. धर्म ऐसा है ॥
मालिनीछन्दः। यदि नरकनिपातस्त्यक्तु मत्यन्तमिष्टत्रिदशपतिमहर्द्धि प्राप्तुमेकान्ततो वा । याद चरमपुमर्थः प्रार्थनीयस्तदानीम् किमपरमभिधेयं नाम धर्म विधत्तः ॥ २३ ॥ भाषार्थ-हे आत्मन् ! जो तेरै नरकका निपात पडना छोडना अत्यन्त इष्ट है अथवा इन्द्रका महान् विभव पावना एकान्त थकी इष्ट है बहुरि तेरै चरम पुमर्थ जो च्यारपुरु. षार्थमैं अन्तका पुरुषार्थ मोक्ष प्रार्थना करने योग्य है तो अ. वर कहा कहने योग्य है. तू एक धर्म ही कू करि, या धर्म ते सर्व अनिष्ट तो दूरि होय है अर सर्व इष्ट की प्राप्ति होय है. ऐसे धर्मभावनाका व्याख्यान किया। ___ याका संक्षेप ऐसा जो धर्म जिनागममें च्यारि प्रकार वर्णन किया है, वस्तुस्वभाव, क्षमादि दशप्रकार, रत्नत्रय स. म्यग्दर्शक सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र, अर दयामय सो निश्चय व्यवहारनयकर साध्या हवा, एक स्वरूप अनेक स्वरूप सधै है. तहां इहां व्यवहारनयकू प्रधानकर वर्णन किया है, सा धर्मका स्वरूप तथा महिमा तथा फल अनेकप्रकारकर वर्णन है. ताकू विचार याकी भावना निरंतर राखनी. यह आशय है।
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषटीकासहिता.
दोहा. दरशज्ञानमय चेतना, आतमधर्म वखानि दया क्षमादिक रतनत्रय, यामें गर्भित जानि॥१
इति धर्मानुप्रेक्षा ॥ १० ॥
अथ लोकानुप्रेक्षा लिख्यते. आरौं लोक भावनाकू कहै हैं तहां लोक स्वरूप कहै हैं. यत्र भावा विलोक्यन्ते ज्ञानिभिश्चैतनेतराः। जीवादयः स लोकःस्यात्ततो लोकोनभःस्मृतः ॥१॥
अर्थ-जहाँ जेते आकाशविषै जीवकू आदिदेकर चेतन अर अचेतन पदार्थ ज्ञानीनिकर देखिये हैं सो लोक है. तातें. परे एक आकाश है सो अलोक है।
वेष्टितः पवनैः प्रान्ते महावेगैर्महाबलैः। त्रिभिस्त्रिभुवनाकीणों लोकस्तालतरुस्थितिः ॥२॥
भाषार्थ-यह लोक है सो अंतविषै सर्वतरफ महान है बेग जिनिका महानही है बल जिनिमैं ऐसे तीन पवन जे बात वलय तिनिकरि बेढ्या है. बहुरि तीन भुवन जे तिनिकरि व्याप्त है. बहुरि ताल वृक्षकी ज्यों है स्थिति जाकी नीचैलें पेड किंछु चौड़ा बीचि सरल उपरि विस्ताररूप ऐसा आकार
निःपादितः स केनापि नैव नैवोद्भुतस्तथा । न भन्नः किं त्वनाधारो गगने स स्वयं स्थितः॥३॥
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जनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ—स्रो प्रसिद्ध यह लोक काहूकरि निपजाया नाहीं है अनादिनिधन है. अन्यमती ब्रह्मादिकका निपजाया कहै हैं सो मिथ्या है. बहुरि काहुनै उद्धास्या थांम्या नाही है अन्यमती काछिवाकी पीठिपरि वा शेषनाग धास्या कहै है सो मिथ्या है. बहुरि ऐसी आशंका न करणी जो धास्या विना अधर कैसें है भग्न होय जाय जाते आधार रहित है. तौ ऊ भग्न न होय है निराधार आकाशविषै स्वयमेव तिष्ट्या
अनादिनिधनः सोऽयं स्वयं सिद्धोऽप्यनश्वरः। अनीश्वरोऽपि जीवादिपदाथैः संभृतोऽनिशम् ॥४॥
भाषार्थ-सो यह प्रसिद्ध लोक है सो अनादिनिधन है स्वयंसिद्ध है अविनाशी है याका कोई ईश्वर स्वामी नाही है तौ ऊ जीव आदि पदार्थनिकरि निरन्तर भस्या है. अन्यमती या लोककी अनेकप्रकार रचनाकी कल्पना करै है सो मिथ्या है ॥
अधोवेत्रासनाकारो मध्येस्याज्झल्लरीनिमः
मृदङ्गसदृशश्चाग्रे स्यादित्थं स त्रयात्मकः ॥५॥ भाषार्थ-यह लोक नीचें तो वेत्रासन कहिये मूढ़के आकार है नीचे ही नीचे चौड़ा है पीछे उपरि घटता आया है बहुरि बीचि झालरिसारीखा है बहुरि उपरि मृदंग सारिखा है दौउतरफ सँकड़ा बीचि चौड़ा ऐसा आकार है. ऐसें तीन स्वरूपकरि लोक तिष्टै है ॥
है
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. ७१ यत्रते जन्तवः सर्वे नानागतिषु संस्थिताः ।। उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते कर्मपाशवशङ्गताः ॥ ६॥ भाषार्थ-जिस लोकमें ए प्राणी हैं ते सर्व नानागतिनिवि तिष्टे अपने कर्मरूप पाशके वशीभूत भये उपजै हैं
अब लोक भावनाका व्याख्यान पूर्ण करै हैं तहां सामान्य करि कहै हैं,
मालिनी छन्दः । पवनवलयमध्ये संवृतोऽत्यन्तगाद स्थितिजननविनाशालिङ्गितैर्यस्तु जातैः । स्वयमिह परिपूर्णो नादिसिद्धः पुराणः
कृतिविलयविहीनः स्मर्यतामेष लोकः ॥७॥ भषार्थ-यहु लोक है सो ऐसा चितवो, कैसा ? पवनके तीनबलय तिनिके मध्य है, सो पवननिकरि वेढ्या है सो अत्यन्त दृढ वेढया है इत उत चलै नाहीं है. बहुरि स्थिति जनन विनाश कहिये ध्रौव्य उत्पात विनाश इनिकरियुक्त जे वस्तुका समूह तिनिकरि स्वयमेव परिपूर्ण है बहुरि अनादि सिद्ध है, काहूनै नवीन न रच्या है याही पुराणा है. बहुरि उत्पत्ति अर प्रलयकरि रहित है. ऐसा लोककू मनमें स्मरो एसा लोकभावनाका उपदेश है ॥ याप्रकार लोकभावनाका कथन पूर्ण किया. लोकका विशेष स्वरूप त्रिलोकसारादि ग्रन्थनितें जानना।
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जैन ग्रन्थरत्नाकरे.
याका संक्षेप ऐसा जो यह लोक जीव आदि अनन्त द्रव्य निकी रचना है ते सर्व द्रव्य अपने अपने स्वभावकूं लिये न्यारे न्यारे तिष्ठै हैं तिनिमैं आप आत्मद्रव्य है ताका स्वरूप यथार्थ जाणि अन्यसूं ममत निवारि आत्मभावना करणी. यह परमार्थ है. व्यवहारकरि सर्व द्रव्यनिका यथार्थ स्वरूप जानना यातें मिथ्या श्रद्धान मिटै है ऐसें लोकभावनाका चि. तवन करना ॥ ११ ॥
दोहा. लोकस्वरूप विचारिर्के, आतमरूप निहारि । परमार्थ व्यवहारमुणि मिथ्याभाव निवारि ॥ ११ ॥ इति लोकानुप्रेक्षा ॥ ११ ॥
अथ बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा लिख्यते । आगैं बोधिदुर्लभ भावनाका व्याख्यान करे हैं. तहां निगोद तैं लगाय सम्यग्ज्ञान पावनें ताई उत्तरोत्तर पावना दुर्लभ कहै हैं,
दुरन्तदुरितारातिपीडितस्य प्रतिक्षणम् । कृच्छान्नरकपातालतलाज्जीवस्य निर्गमः ॥ १ ॥ भाषार्थ - यह प्राणी संसारविषै दूरि है अंत जाका ऐसा पापरूप वैरीकरि निरन्तर पीडित है तहां प्रथम तो नरक तलें पाताल मैं निगोद हैं तहां तैं या जीवका निकशना कहां होय ? अर्थात् नित्य निगेदतैं निकसना कठिन है !
१ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र इस रत्नत्रयको बोधि कहते
हैं |
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
तस्माद्यादे विनिष्क्रान्तः स्थावरेषु प्रजायते । समयवामोति प्राणी केनापि कर्मणा ॥ २ ॥
७३
भाषार्थ - बहुरि तिस निगोदतें जो निकसै तौ पृथिवी आदिकायनिविधै उपजै यह प्राणी कोई कर्मकरि त्रसपणाकूं ET कर पा है ||
पर्याप्तस्तथा संज्ञी पञ्चाक्षोऽवयवान्वितः । तिर्यञ्चोऽपि भवत्यङ्गी तन्न स्वल्पाशुभक्षयात् ॥ ३ ॥
भाषार्थ - बहुरि सपणा भी पावै तौ तहां तिथेच यौनिनिर्विषै पर्याप्तपणा पावना थोड़ा अशुभका क्षयतें नाही पात्र है बहुत पापका क्षयतें पाँव है. तहां भी मनसहित पंचेन्द्रियपणा संज्ञीपणा पावना तैसें ही दुर्लभ है. तहां भी सम्पूर्ण अवयव पावना दुर्लभ है ऐमैं यह प्राणी थोड़े पापके क्षयतें नाहीं होय है |
नरत्वं यद्गुणोपेतं देशजात्यादिलक्षितम् । प्राणिनः प्राप्नुवन्त्यत्र तन्मन्ये कर्मलाघवात् ||४|| भाषार्थ – आचार्य कहैं हैं ए प्राणी हैं ते या संसार मैं जो मनुष्यपणा अर तहां भी गुणनिकरि युक्त अर देश जाति कुल आदिकर सहित उत्तरोत्तर कर्मके हलकापणाकरि पावै है. सो यह दुर्लभ है मैं ऐसें मानू हौं ॥
आयुः सर्वाक्षसागग्री बुद्धिः साध्वी प्रशान्तता ।
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जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ--प्राणीनिकै देशजाति कुलादि सहित मनुष्यपणा भी होते बडी आयु पांचं इन्द्रियनिकी पूरी सामग्री बहुरि विशिष्ट भली बुद्धि परिणाम शीतल मंदकपायरूप होय है. सो काकतालीय न्याय सरीखा जानना । कोई समय तालका फल टूटि पृथ्वीपर पड़े तिसही काल तहां काकका आगमन होय अर काक ताकू भोगै यह जोग मिलना दुर्लभ है तैसें जानना ॥
ततो निर्विषयं चेतो यमप्रशमवासितम् । यदि स्यात्पुण्ययोगेन न पुनस्तत्त्वनिश्चयः ॥ ६ ॥
भाषार्थ-तिस पूर्वोक्त बुद्धि आदि सामग्री भी विष. यनित विरक्तता अर व्रत सहित परिणाम अर प्रशम विशुद्ध भावकरि वासित चित्त होय सो बडे पुण्यके योगकार होय है बहुरे ऐसे होते भी तत्त्वका निश्चय नाही होय है यह होना दुर्लभ है ॥
अत्यन्तदुर्लभेष्वेषु दैवाल्लब्धेष्वपि क्वचित् । प्रमादात्प्रच्यवन्तेत्र केचित्कामार्थलालसाः ॥७॥
भाषार्थ-पर्वोक्त सामग्री अत्यन्त दम है ते भी देवके योग पावतै सन्तै कोई काम अर अर्थविष लुब्ध भये सन्ते सम्यक्मार्ग” च्युत होय हैं, विषय कपानिमैं लगि जाय हैं। मार्गमासाद्य केचिच्च सम्यग्रत्नत्रयात्मकम् । त्यजन्ति गुरुमिथ्यात्वविएव्यामूढचारः॥८॥
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषटीकासहिता.
भाषार्थ-तहां भी केई रत्नत्रयात्मक मार्ग• पायकरि भी तीत्र मिथ्यात्वरूप विषकरि व्यामूढचित भये सन्ते सम्यक् मार्गकू छोडि दे हैं ॥ .
स्वयं नष्टो जनः कश्चित्कश्चिन्नष्टैश्च नाशितः । कश्चित्प्रच्यवते मार्गाच्चण्डपाषण्डशाशनैः॥९॥
माषार्थ-कोई जन तौ मार्गः आपही च्युत होय है बहुरि कोई जे अन्य, मागते च्युत भये होंय तिनिकरि नट कीजिये हैं बहुरि कोई प्रचण्ड पाखंडीनिके उपदेशे मत तिनिकरि सम्यग्मार्ग” च्युत होय हैं॥ त्यक्त्वा विवेकमाणिक्यं सर्वाभिमतसिद्धिदम् । अविचारितरम्येषु पक्षेष्वज्ञः प्रवर्तते ॥ १० ॥
भाषार्थ---मार्ग” च्युत भया जन है सो विवेकरूपी रत्न बांछित सिद्धिके देनेवाला चिन्तामणि सारिखाकू छोडि करि अर विना विचारे रमणीकसे दी ऐसे सर्वथा एकान्त पक्षनिविधै अज्ञानी प्रवते है ॥
अविचारितरम्याणि शाशनान्यसतां जनेः। अधमान्यपि सेव्यन्ते जिह्वोपस्थादिदण्डितैः॥११॥
भाषार्थ-जे जिहा अर उपस्थादि इन्द्रियनिकरि दंडे नन हैं तिनिकरि दुर्जननिके शासन मत विना परीक्षा कीये रमणीक लागै ऐसे पापरूप मार्ग हैं तिनिकू सेइये है । विषय कपाय कहा कहा अनर्थ न करावै ?
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जनप्रत्यरलाफर.
है
सुप्रापं न पुनपुंसां वोधिरत्नं भवार्णवे । हस्तादृष्टं यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे ॥१॥
भाषार्थ-यह बोधिकहिये सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रत्नत्रय है सो संसाररूप समुद्रविषै सुगम पावने स्वरूप नाहीं है याका पावना अत्यन्त दुर्लभ है. ताकू पायकरि भी जे गमावै हैं ते जैसे हाथमैं आया अमोलिक रत्न बडे समुद्रमें गिर पड़े तैसें यह गये पीछे फेरि पावना कठिन है। ___ अब या भावनाका कथन पूर्ण करै हैं तहां सामान्य. करि कहै हैं।
मालिनी छन्दः । सुलभमिह समस्तं वस्तुजातं जगत्या. __ मुरगसुरनरेन्द्रैः प्रार्थितं चाधिपत्यम् । कुल बलसुभगत्वोदामरामादि चान्यत्
किमुत तादिदमकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ॥ १३ ॥ भाषार्थ-या जगती त्रिलोकीविषै समस्त वस्तुक समूह सो सुलभ है. बहुरि धरणीन्द्र नरेन्द्र सुरेन्द्रकरि प्रार्थना करनेयोग्य ऐसा अधिपतिपणा सो भी सुलभ ही है. जाते यह भी कर्मके उदयकरि मिले है. बहुरि भलाकुल बल सुभगता सुंदर स्त्री इत्यादि वस्तु सर्व ही सुलभ हैं तौ दुर्लभ कहा है जो प्रसिद्ध यह सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रस्वरूप बोधिरत्न है सो दुर्लभ है । ऐसें बोधिदुर्लभ भाव. नाका वर्णन पूर्ण किया।
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
याका संक्षेप ऐसा जो परमार्थकरि विचारिये तब जो पराधीन वस्तु होय सो दुर्लभ है अर स्वाधीन होय सो सुलभ है. सो यह बोधि है सो आत्माका स्वभाव है सो स्वाधीन है. अपना स्वरूप जानै तब आपहीकै पासि है सो यह दुर्लभ नाही. अर जैतै अपना स्वरूप न जानै तेतै आत्मा कर्मके आधीन है सो या अपेक्षा अपना बोधिस्वभाव पावना दुर्लभ है. अर कर्मकृत सर्व ही संसारमें मुलभ है. तहां आचार्य व्यवहारनयकी अपेक्षा बोधिका दुर्लभपणा वर्णन किया है. जो उत्तरोत्तर पर्याय पावतैं पावतें वोधिकै योग्य पर्याय पावना दुर्लभ है.अर तामैं भी वोधि पावना दुर्लभ है सो पापकरि प्रमादादिकै वशि होय याकू गमावना नाही. यह उपदेश है ॥
दोहा.
वोधि आपका भाव है, निश्चय दुर्लभ नाहिं । भवमें प्रापति कठिन है, यह व्यवहार कहाहिं ॥१२॥
इति वोधिदुर्लभानुप्रेक्षा।
अथोपसंहारः। अब बारह भावनाका प्रकरण पूर्ण करै हैं तहां तिनिका फल तथा महिमा कहै हैं.
दीव्यन्नाभिरयं ज्ञानी भावनाभिर्निरन्तरम् ॥ इहैवाप्नोत्यनातकं सुखमत्यक्षमक्षयम् ॥ १॥
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जैन ग्रन्थ रत्नाकरे.
भाषार्थ – इनि बारह भावनानिकरि निरन्तर रमता
ज्ञानी जन है सो इसही लोकमें रोगादिककी बाधारहित अतीन्द्रिय अविनाशी सुखकूं पात्र है अर्थात् केवलज्ञानानन्द सुखकूं पावै
है ||
आर्याछन्दः ।
विध्याति कषायाग्निर्विगलति रागो विलीयते ध्वान्तं । उन्मिषति बोधदीपो हृदि पुंसां भावनाभ्यासात् ||२||
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भाषार्थ – इनि भावनानिका अभ्यास पुरुषनिके हृद यविषै कपायरूप अग्नि है सो तो बुझि जाय है बहुरि ज्ञानरूपदीपक है सो प्रकाश होय है ॥
शार्दूलविक्रीडितच्छन्दः ।
एता द्वादशभावनाः खलु सखे सख्यपवर्गश्रियमस्याः संगमलालसैर्घटयितुं मैत्रीं प्रयुक्ता बुधैः । एतासु प्रगुणीकृतासु नियतं मुक्त्यङ्गना जायते सानन्दा प्रणयप्रसन्नहृदया योगीश्वराणां मुदे ॥३॥ भाषार्थ -- आचार्य कहै हैं है मित्र ! ए बारह भावना हैं ते निश्चयकरि मुक्तिरूप लक्ष्मीकी सखी है. तहां जे तिस मुक्तिरूप लक्ष्मी के संगमके लालची पंडित जन हैं तिनिनै तिसकी मित्रता बनावनेकूं प्रयोगरूप ये भावना कहीं तहां इनि भावनानिकं अभ्यासरूप करते संतै निश्चय मुक्ति रूप स्त्री हैं सो आनंदसहित नेहरूप प्रसन्नहृदय भई सन्ती
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द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता.
योगविरनिके हर्ष अर्थ होय है. भावार्थ-ए भावना पंडितनिने मुक्तिकी सखी सारिखी कही है सो योगीश्वर इनिकं भावै तब ए मुक्तिकूं मिला है. ऐसें भावनाका वर्णन किया ||
याका तात्पर्य ऐसा जो इस ज्ञानार्णव शास्त्रमें ध्यानका ( योगका ) अधिकार है. अर ध्यान है सो मोक्षका कारण हैं. तहां जतै संसारदेहभोगत प्राणीनिकै सचि रहै, तेतै ध्यानके सन्मुख होय नाहीं अर ए भावना हैं ते संसारदेह भोग वैराग्य उपजावनेकूं निमित्त है तातैं इनिका वर्णन पहिले किया है. तहां ए प्राणी अनादितै पर्यायबुद्धि है द्रव्यबुद्धि कदे भई नाहीं. अर पर्याय है सो अनित्य है तातें द्रव्यबुद्धि करावने पर्यायकं अनित्य दिखाई. इनितें वैराग्य ये ध्यानकी रूचि होय बहुरि यह प्राणी मोह परका वारणा चाहे जतै ध्यान होय नाहीं, तातैं परका शरणा छुडाय आपका शरण बताया. बहुरि संसार में दुख दिखाया. बहुरि आपके एकत्वपणा जनाया. बहुरि अन्यका संगत मोह उपजै तातें आपकूं अन्य जनाया. बहुरि आत्रवतें कर्मका बन्ध होना जनाया. संवरतें ध्यानकी सिद्धि जनाई. निर्जराका कारण ध्यान तथा निर्जरातें ध्यानकी वृद्धि जनाई. लोकका स्वरूप जानतें मिथ्या श्रद्धान जाय यातै लोकस्वरूप जनाया. धर्म है सो ध्यानका स्वरूप ही है या धर्मका रूप जनाया बहुरि बोधिकी दुर्लभता जनाई. याका संयोग
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जैनग्रंथरत्नाकरे.
मिले प्रमाद न सेवना. ऐसा उपदेश कीया. ऐसें बारह भावनाका स्वरूप जानि इनिकी भावना निरन्तर भाये ध्यान .. रुचि होय ध्यानमैं थिर भये केवलज्ञान उपजाय मोक्ष प्र. होय है ! ऐसा तात्पर्य है ॥
दोहा. ऐसें भावै भावना, शुभवैराग्य जु पाय ।
ध्यान करै निजरूपको, ते शिवपहुंचै धाय ॥१३॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचित योगनदीपाधिकारस्वरूप शानार्णवनाम संस्कृत ग्रन्थकी देशभाषामय वनिकाविष द्वादशानुप्रेक्षाका प्रकरण
समाप्त भया ।
समाप्त.
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