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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir द्वादशानुप्रेक्षा भाषाटीकासहिता. अथ संसारानुप्रेक्षालिख्यते। आगें संसारभावनाका व्याख्यान करै हैंचतुर्गतिमहावर्ते दुःखवाडवदीपिते । भ्रमन्ति भविनोऽजस्रं वराका जन्मसागरे ॥१॥ भाषार्थ-या संसाररूप समुद्रमें प्राणी हैं ते निरन्तर भ्रमै हैं कैसा है संसारसमुद्र ? चारिगतिरूप है महा आवर्त कहिये भ्रमण जामें, बहुरि कैसा है ? दुःखरूप बडवानलकार प्रज्वलित है. बहुरि प्राणी कैसे हैं ? बराक हैं, दीन हैं, अनाथ हैं सहायकरि रहित हैं। उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते स्वकर्मनिगडैर्वृताः। स्थिरेतरशरीरेषु संचरन्तः शरीरणः ॥ २॥ भाषार्थ—ए प्राणी अपने कर्मरूप बेडीकार युक्त भये स्थावर त्रस शरीरनिविषै संचरते उपजै हैं अर मरै हैं । कदाचिदेवगत्यायुर्नामकर्मोदयादिह । प्रभवन्त्यङ्गिनः स्वर्गे पुण्यप्राग्भारसंभृताः ॥ ३ ॥ भाषार्थ-कदाचित् तौ देवगति नामकर्म अर देवायुकर्मके उदयकार इस संसारविषै ए प्राणी पुण्यकर्मके भारकरि भरे स्वर्गविषै उपज हैं. तहां देवनिके सुखकू पावै हैं ॥ कल्पेषु च विमानेषु निकायष्वितरेषु च । निर्विशन्ति सुखं दिव्यमासाद्य त्रिदिवश्रियम्॥४॥ भाषार्थ-तहां देवगतिविषै कल्पवासीनिके विमाननिविषै For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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