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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० जैनमन्थरत्नाकरे. बहुरि इतरनिकाय जे भवनवासी, ज्योतिषी व्यन्तर देवनिविषै देवनिकी लक्ष्मीकूं पाय देवोपनीत सुखकं भोगवै है | प्रच्यवन्ते ततः सद्यः प्रविशन्ति रसातलम् | भ्रमन्त्यनिलवद्विश्वं पतन्ति नरकोदरे ॥ ५ ॥ भाषार्थ - बहुरि तिस स्वर्गतैं च्युत होय है अर तत्काल पृथ्वी तलें आवै है. तहां पवनकी ज्यों जगतमें भ्रम हैं बहुरि नरक में प्रवेश करे हैं | विडम्बयत्यसौ हन्त संसारसमयान्तरे । अधमोत्तमपर्यायैर्नियोज्य प्राणिनाङ्गणम् || ६ || भाषार्थ – आचार्य खेदकार कहै है जो अहो ! देखो । यह संसार है सो प्राणीनिके समूहकूं समयान्तरविषै नीची ऊंची पर्याय कार जोडि विडंबनारूप करे है. जीवके स्वरूपको अनेकप्रकार विगा है. ॥ स्वर्गी पतति सान्दं श्वा स्वर्गमधिरोहति । श्रोत्रियः सारमेयः स्यात् कृमिर्वा स्वपचोऽपि वा ॥ ॥ ७ ॥ भाषार्थ – अहो देखो ! स्वर्गका देव है सो तौ आक्रन्द सहित रोवता पुकारता स्वर्गतैं नीचें पड़े है. बहुरि स्वान -कूकरा है सो स्वर्ग में जाय देव होय है. बहुरि श्रोत्रिय कहिये क्रियाकाण्डका अधिकारी अस्पर्श रहनेवाला ब्राह्मण है सां स्वान -(कूकरा ) होय है. अथवा लट होय है अथवा चांडाळ होय है यह संसारकी विटंबना है । For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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