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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैमप्रन्थरत्नाकरे. दोहाद्रव्यरूपकरि सर्व थिर, परजय थिर है कौण । द्रव्यदृष्टि आपा लखो, पर्जयनयकरि गौण ॥ १ ॥ इति अनित्यानुप्रेक्षा ॥१॥ अथ अशरणानुप्रेक्षा लिख्यते । आगें अशरणभावनाका व्याख्यान करै हैं-तहां प्रथम ही कहै हैं जो काल आवै तब कोऊ शरणा नाही,-- न स कोऽप्यस्ति दुर्बद्ध शरीरी भुवनत्रये । यस्य कण्ठे कृतान्तस्य न पाशः प्रसरिष्यति ॥१॥ भाषार्थ हे दुर्वद्धि प्राणी तू शरणा काहूका चाहै है सो या तीन भुवनमें ऐसा कोई प्राणी नाहीं है जाके कंठीवषै कालका पाश नाहीं पड़े है. सर्व प्राणी कालकै वशि है ॥ फेरि विशेष कहै हैं, समापतति दुर्वारे यमकण्ठीरवक्रमे । त्रायते तु न हि प्राणी सोद्योगैस्त्रिदशेरपि ॥ २॥ भाषार्थ-इस दुर्निवार कालरूपी सिंहके चरणनीचे आवते संतै प्राणी कू उद्यमसहित जे देव ते भी नाही राखि । सके हैं. अन्य कौन राखे । फेरि विशेष कहै हैं,--- सुरासुरनराहीन्द्रनायकैरपि दुर्द्धरा। For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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