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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनप्रन्थरत्नाकरे. व्यालानलनरव्याघ्रद्विपशार्दूलराक्षसाः। नृपादयोऽपि द्रुह्यन्ति न धर्माधिष्टितात्मने ॥१७॥ भाषार्थ जो धर्मकरि अधिष्टित आत्मा है ताकै निमित्त सर्प अग्नि मनुष्य बघेरा हस्ती सिंह राक्षस ए सर्व बहुरि राजादिक ते सर्वही द्रोह न करै है. यह धर्म सवते रक्षा करै है. अथवा ते सर्व धर्मात्माके रक्षक होय हैं ॥ निःशेषं धर्मसामर्थ्य न सम्यग्वक्तुमीश्वरः । स्फुरदसहस्रेण भुजगेशोऽपि भूतले ॥ १८ ॥ भाषार्थ-आचार्य कहै हैं जो इस धर्मका सामर्थ्य सम्पूर्ण सम्यक्प्रकार कहनेकू भुजगेश जो शेषधरणीन्द्र सो भी स्फुरायमान हजार मुखकरि या भूतलविषै समर्थ नाही सो हम कैसैं समर्थ हो हिं॥ धर्मधर्मेति जल्पन्ति तत्त्वशून्याः कुदृष्टयः । वस्तुतत्त्वं न बुध्यन्ते तत्परीक्षाक्षमो यतः ॥१९॥ भाषार्थ-जे तत्त्वके यथार्थ ज्ञानकरि शून्य हैं, ऐसे मिथ्या दृष्टि हैं ते धर्म धर्म ऐसैं तो कहै हैं परन्तु वस्तुका यथार्थ स्वरूपकू नाहीं जानै हैं. जाते ते तिस धर्मकी परीक्षाकेविषै असमर्थ हैं. भावार्थ---नाम मात्र तथा विपरीतरूप धर्म धर्म ऐसा तौं कहै हैं परन्तु वस्तुका स्वरूप यथार्थ जाने विना सांची परीक्षा कैसैं होय ? नाही होय. यह परीक्षा जिनागमतें ही होय है तहां जिनागममैं धर्म कह्या है सो कहै हैं,-- For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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