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प्रस्तावना.
संसारसे वैराग्य उत्पन्न करनेकेलिये जिनमतमें द्वादशानुप्रेक्षा ही है. यद्यपि जैनग्रंथरत्नाकरमें स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नामका संस्कृत छाया और भाषाटीकासहित बहूत बडा ग्रंथ इसी विषयका छप गया है परन्तु वह बहुत बडा होनेसे उसमें विशेष विषयोंका भी वर्णन हुआ है. संक्षिप्ततासे द्वादशभावनाका ही व्याख्यान हो ऐसा एक छोटासा प्रन्थ छपाकर प्रचार करनेकेलिये भरोंचनिवासी शेठचुन्नीलाल विरचंदजी नाळिएरवालोंकी अतिशय प्रेरणा होनेपर यह श्रीमच्छुभचन्द्राचार्यविरचित योगप्रदीपाधिकारस्वरूप ज्ञानार्णव नामके संस्कृत ग्रंथमेंसे द्वादशानुप्रेक्षा नामका दूसरा अध्याय उद्भित करके जयपुरनिवासी स्वर्गीय विद्वद्वर्य पं. जयचन्द्रजी छाबडाकृत वचनिकासहित इस जैनग्रन्थरत्नाकर में छपाकर सर्वसाधारणके हितार्थ प्रसिद्ध किया है इसकी नित्य स्वाध्याय करनेसे संसारदेहभोगोंसे अरुचि होकर कषायोंकी मंदता होती है और आत्महितसाधनमें प्रवृत्ति होती है. इस कारण सबको इसकी एक २ प्रति मंगाकर स्वाध्याय करना चाहिये.
जैनीभाइयोंका दास, पन्नालाल बाकलीवाल.
ता १-३-१९०५ ईसवी.
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