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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे. भाषार्थ-या संसारविषै पुत्र स्त्री धन बान्धव सर्व ही कुटंब तथा शरीर ये सर्व ही अवश्य जाते रहै हैं तथा आ. गानै भी जायहींगे तो इनिके कार्यकेअर्थ वृथा क्यों खेद कीजिये ? ऐसा उपदेश है ॥ फेरि कहै हैंनायाता नैव यास्यन्ति केनापि सह योषितः । तथाप्यज्ञाः कृते तासां प्रविशन्ति रसातलम् ॥१८॥ भाषार्थ-या संसारमें स्त्री हैं ते कोईकी साथि परलो. कसू आई नाहीं तथा परलोकमें लार जासी नाहीं तौऊ अज्ञानी लोक हैं ते तिनिके अर्थ निन्धकार्य करि रसातल-- कहिये नरकमें प्रवेश करै है सो यह बडा अज्ञान है । आज कहै हैं बन्धुजन ऐसे हैं,ये जाता रिपवः पूर्व जन्मन्यस्मिन्विधेर्वशात् । त एव तव वर्तन्ते बान्धवा बद्धसौहृदः ॥ १९ ॥ भाषार्थ हे आत्मन् ! जे तेरे पूर्वभवविषै वैरी भये थे ते ही कर्मके वशकार या भवविष बांध्या है मित्रपणा जिनिनै ऐसे बान्धव भये हैं. भावार्थ-तू या मति जाणे ए मेरे बान्धव हितू हैं ॥ रिपुत्वेन समापन्नाः प्राक्तनास्तेऽत्र जन्मनि । बान्धवाःक्रोधरुद्धाक्षाः दृश्यन्ते हन्तुमुद्यताः ॥२०॥ १ संग वा पीछे. For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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