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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनग्रन्थरत्नाकरे, है सो स्वर्गपुरीका निरन्तर सुखका उदय ताका ठिकाणा या नन· करै है बहुरि धर्म है सो धर्मात्मा जनकू मुक्तिरूप स्त्रीका संभोगकै योग्य करै है. धर्म ऐसा है ॥ मालिनीछन्दः। यदि नरकनिपातस्त्यक्तु मत्यन्तमिष्टत्रिदशपतिमहर्द्धि प्राप्तुमेकान्ततो वा । याद चरमपुमर्थः प्रार्थनीयस्तदानीम् किमपरमभिधेयं नाम धर्म विधत्तः ॥ २३ ॥ भाषार्थ-हे आत्मन् ! जो तेरै नरकका निपात पडना छोडना अत्यन्त इष्ट है अथवा इन्द्रका महान् विभव पावना एकान्त थकी इष्ट है बहुरि तेरै चरम पुमर्थ जो च्यारपुरु. षार्थमैं अन्तका पुरुषार्थ मोक्ष प्रार्थना करने योग्य है तो अ. वर कहा कहने योग्य है. तू एक धर्म ही कू करि, या धर्म ते सर्व अनिष्ट तो दूरि होय है अर सर्व इष्ट की प्राप्ति होय है. ऐसे धर्मभावनाका व्याख्यान किया। ___ याका संक्षेप ऐसा जो धर्म जिनागममें च्यारि प्रकार वर्णन किया है, वस्तुस्वभाव, क्षमादि दशप्रकार, रत्नत्रय स. म्यग्दर्शक सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र, अर दयामय सो निश्चय व्यवहारनयकर साध्या हवा, एक स्वरूप अनेक स्वरूप सधै है. तहां इहां व्यवहारनयकू प्रधानकर वर्णन किया है, सा धर्मका स्वरूप तथा महिमा तथा फल अनेकप्रकारकर वर्णन है. ताकू विचार याकी भावना निरंतर राखनी. यह आशय है। For Private And Personal Use Only
SR No.020327
Book TitleDwadashanupreksha Bhasha Tika Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShubhchandracharya
PublisherJain Granth Ratna Karyalay
Publication Year
Total Pages86
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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